शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बस चिराग भर
चाँद को,
बचाए रखा,
हवाओं की बेरुखी से..
 
सपनीले आँगन को,
लीपती ..
 
बोच-बोच कदम रखती..
 
धूल सने आस्मां को,
धो डालती
नीम आँखों की नदी से..
 
नयी सुबह के सपने गांठत़ी
अंधेरी,उजली सभी रातों में..
 
सच और सपनो के,
बीच की दुनिया में..
जाने कौन सा छोर ,
छूटा मुझसे..
 
अब हर चीज़ पते ठिकाने पर है,
और मेरे हाथ खाली है बस..

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

बहती धारा के किनारों से..
सरकती जा रही थी,
दरख्तों की कतारें
धीरे -धीरे..

पनीले कुहासे में ,
डूबा चाँद,
जब-तब..
आँखों में झूलते पानी में
कैद हो जाता था..

पढ़ी-सुनी दुनिया से..
कितनी जुदा..
..कितनी सुंदर..
लगा करती थी
बारिश भीगी खिड़की के पार की दुनिया..

कोई ख्वाहिश नहीं थी..
कोहक़ाफ़ की घाटियों के हीरे-पन्नो की..
खुलने लगे थे अपने आप
चमकते ख्वाबो के दरवाज़े..
..सिम-सिम करके..

जादू के कालीन पे..
बादलों में उड़ना ..
कितना भला सा था...

ये बात और है कि...
मुझे नीचे उतरने की कला मालूम न थी...

बुधवार, 1 दिसंबर 2010


कई बार सोचती हूँ..
कि तुम्हें आज न सोचूं...
और कुछ और
सोचूं..
..मैं..

सच..
कुछ और सोचा भी..
न जाने फिर भी...
..तुम..

जाड़ों की रात की सर्द हवा सी
तुम्हारी आवाज़...
भूल जाती हूँ सुनते-सुनते
कि क्या कह रहे हो..
अगर टोक के बीच में से पूछ लो कभी तो...
नहीं बता पाऊँगी...
कहाँ थे
..तुम..

तुम्हारी हंसी की सीढियां..
उतरती चढ़ती रहती हूँ..
..मैं..

जाओ अब ..
जाते हुए कहते हो जब..
मन चाहता है कि ठहर जाओ
और बस एक क्षण
..तुम..

शनिवार, 13 नवंबर 2010

फूल मूंदकर बंद होने के समय..

गुफ़ा की छ्त  से
पिघली बर्फ का यूँ मृदंग बजे..


धूप पीते हो
दरख्तों की चोटियों पे
बैठे हुए परिंदे जैसे..


बादल छाये रहे
जहाँ ऊँचे-ऊँचे  शिखरों पे हरदम..


बार - बार लौटे वही
एक बार कही
बात जहाँ..


बिखरी पड़ी हो
हरसू धान की महक..


गुलमोहर का नर्म सहारा लेके
फीके सुनहरी शफक को देखे..


आंखे मीचे-मीचे
सामने से गुजर जाये
सूरज के सभी घोड़े..


पूरे चाँद की सर्द रातें
आस्मां पे उतर आये..


इस से पहले
तेज़ हवाए बहा ले जाये..


तुम साथ साथ पढ़ते रहना
रेत पे लिखूंगी में जो
सिर्फ तुम्हारे लिए..

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

बिरहा का सुलतान ... पंजाबी कविता का मीर शिव कुमार बटालवी...
सिरहाने मीर  के आहिस्ता बोलो,
अभी टुक रोते रोते सो गया है..
महबूब शायर शिव..उदासी उसके गीतों में लबालब भरी हुई थी के उसे निराशावादी कवि तक कहा जाता था. जो हमेशा मौत की बातें करता था.यौवन में मरने की बात सुनाता था...इतनी कम उम्र में इतनी शोहरत फिर भी उसकी आत्मा मुक्ति की बात करती..
प्रभु जी..
बिन बिरहा की इस मिट्टी को
अब मुक्त करो..
ढूध की ऋतू में गुजरी अम्मी
बाबल बचपन में,
और यौवन की रुत में सजनी
 मरें पहले पहले सभी गीत मेरे..
 मुझे विदा करो...
प्रभु जी..मिन्नत है ...
मेरी बांह न जोर से पकड़ो,
मुझे विदा करो..
उसका हाल फकीरों का सा था...
क्या पूछते हो हाल फ़कीर का...
इस  नदी से बिछड़े नीर का
...
न जाने और कितना दर्द सहना था उसने अभी वो मरते मरते भी और दर्द और दर्द मांगता रहा..जाने कितनी प्यास थी उसे....
मैं छोटी सी उम्र में सारा दर्द सह चुका ,
जवानी के लिए थोड़ा दर्द और दो..
उसके गम की रात एक उम्र जितनी लम्बी थी...पर बहुत छोटी थी...रात भी खत्म हो गयी और बात भी..उसके बिरह से जलते गीत भी...वो कहता रहा-
गम की रात लम्बी है
या फिर मेरे गीत लम्बे है..
न ये रात खतम होती है न मेरे गीत..
न जाने क्यों बिछड़े हुए अपनों की याद उसे खाए जाती थी..ज़िन्दगी से उकताया हुआ बेजार था.अपनी सांसो का दर्द हवाओं में घोलता अपना आप भुला बैठा था..उसने गम को खाना सीख लिया था...तभी तो..



मैंने तो मरना है जवानी के किसी मौसम में.
और लौट जाना है वापिस इसी तरह भरे भराए...
तेरे हिज्र की परिक्रमा करके
मैंने जवानी में ही मर जाना है..
जो इस मौसम में मरता है
वो या फूल बनता है या सितारा..
जोबन के मौसम में आशिक मरते
या फिर कोई किस्मतवाला..
या फिर जिनकी किस्मत में जन्म से हिज्र लिखा हो..
तुम्हारा दुःख मेरे साथ बहशत तक जायेगा..
भला जीना किस लिए मुझ जैसे बदनसीब को..
जनम से ले के जवानी तक शर्म पहने रखी..
आओ जन्म से पहले ही उम्र पूरी कर ले
...फिर शर्म ओढ़ ले....
मर के एक दूजे की परिकर्मा कर ले..
.शिव एक कविता जो पूरी नहीं हुई.



शिव कुमार(जुलाई २३,१९३७ -मई ७,१९७३)
रचनाएँ:
१:पीड़ा दा परागा-१९६० 
२:लाजवंती-१९६१
३:आटे दीयां चिड़ियाँ-१९६२
४:मेनू विदा करो-१९६३ 
५:बिरहा तूं सुलतान-१९६४
६:दर्दमंदा दीयां आही-१९६४
७:लूणा-१९६५
"लूणा" शिव कुमार बटालवी (१९३७-१९७३)का लिखा एक महाकाव्य है.लूणा शिव ने १९६५ में लिखी जब वह २८ साल के थे.१९६७ में इसे साहित्य अकादमी अवार्ड मिला जब वह मात्र ३० साल के थे.

किसी आह सी नाज़ुक  ग़मगीन आवाज़....जो आसमानों का सीना चीर देगी...


रविवार, 17 अक्तूबर 2010

अजीब उदास सा मंजर है...

हवा की छांव में गिरे,
पलाश के फूलों की महक..

तेरे यहीं-कहीं आस-पास
होने का अहसास शफक..

सुरमयी रेत
स्याह चट्टानों के पैरो तले..

सांसों की धुंध जैसे
लम्बे गहरे साये ऐसे..

परे असमानों में
किसी खण्डहर की मुंडेर पे
पड़े टूटे दिए सा
जल रहा है सितारा कोई..

कितना सब होने पे भी
 इतना सब खाली क्यों है..

क्या तुमको  भी
मेरी याद इस तरह आती होगी

न जाने कौन सा रंग
होता है इस उदासी का
खुले किवाड़ है
दबे पांव चली आती होगी

कोई तो बात करो
के फिर आज
बड़ी उदास है शाम...

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

जादू भरी ख़ुशी की तान..
एकाएक पलटा खाती है
कोई उदास साज़ बजता है ,
याद की छोटी सी लट
ज़ो तुमने कान के पीछे की थी
पलकों पे लहराती है..
यकायक,
सारे संगीत ख़त्म हो जाते है
सारा अँधेरा...
खिड़की के रास्ते कमरे में उतर आता है.
बारिश खत्म हो चुकी है कब की..
बस पत्तों से टपकता पानी
धीरे धीरे शोर कर रहा है..

एक पेड़ अभी भी भीग रहा है...



 ***********************



उमड़ते काले सायों के साथ,
मटमैले धब्बो वाली
उड़ती रुईं के नीचे..
चांदनी के बेतरतीब,
उनींदे तैरते टुकड़ो के बीच
गीली रेत पे..
हथेलियों पे चेहरे को टिका..
सुनुगी..
तुमसे..
मेरे लिए लिखी नज़्म..
कायनात की सारी आवाज़े,
खामोश हो जाएँगी उस लम्हे...


सुबह से ठीक पहले का आखिरी सपना..

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

लम्हात

तुम पहले पुरुष हो...
और मैं पहली स्त्री...
ऐसा कुछ याद तो नहीं पड़ता...
मैं भूल गयी हूँ,
ऐसा भी नहीं है....
ये प्यार भी नहीं है,
पहला पहला....
कई सदियो तक का सफ़र...
और फिर पहुंचा है हम तक....

जब होगा इक नया युग..

तब भी...
किसी पूर्व से निकलेगा कोइ नया सूरज,
और छिप जायेगा किसी नए पश्चिम में......
फिर छिड़ेगा पहली बारिश का अनहद नाद....

तब भी...
अवशेष दबे होंगे प्यार के,
किसी नज़म के तले..
कही कही होंगे निशाँ किसी दर्द के,
दबे पांव चलने के....
आँखे भी नम होंगी ज़रा ज़रा सी बात पर.....
मिल जायेगी कही दुबक के बैठी हुई मुस्कान भी......

वो नया युग होगा....
मैं पहली स्त्री हूँगी...
और तुम पहले पुरुष......


**********************

रुक गयी...
छींक यूँ आते आते मुझको.....
तूं रह गया......
याद करते करते मुझको....
किसी और ख्याल ने,
रास्ता तेरा काटा होगा.......

दैनिक राशिफल-
आज कोइ शुभ समाचार मिलेगा.....


*************************



तूं शर्मिंदा न होना...
न आ पाने पे अपने....
कोइ मजबूर हालात रहे होंगे......
मगर..
इक बार बताओ तो सही....
तुम
उस रोज़
आये क्यूँ नहीं???



*************************


कई बार हटाया,
फ़िर आ ही जाते है....
दीवार के इस कोने में...
कभी उस कोने में....
महीन महीन,
कितने भी हटाओ...
आज या कल,
ये फ़िर होंगे....
ज़हन की दीवारों पे,
यादो के जाले......



*********************



टूट भी नही पाता,
और जुड़ता भी नही....
सिमटता भी नही किसी तरह...
बिखरता भी नही है....
मेरा और तुम्हारा रिश्ता,

सदियो से लगी खुलती ही नही,
कई बार तुमने तोड़नी चाही
कई बार मैंने भी...
बड़ी पेचीदा गांठे है इसकी....



*****************************





तुम कहते हो चलो रोंप देते है,
गुलमोहर के पेड़ सडको के दोनों तरफ़।
ताकि आने वाली पीढिया कर सके,
इश्क की बातें इनके नीचे।
मैं पूछती हूँ पिछली पीढियो ने ,
ये क्यूँ नहीं रोपे ???


**********************



शून्य से शीर्ष तक जाना था,
मुझे साथ तुम्हारे।
मन ही मन कुछ जोड़ के,
कुछ घटा के,
न जाने क्या सोच के।
तुम मुझे सिफ़र पे ही छोड़ गये।


मैं कहा जाऊँ अब?






मैं वाकिफ नही हूँ इन रास्तो से.
इस तरफ़ अकेलेपन का जंगल है.
तो उस और तन्हाई का समन्दर ।
आगे भी गहरे अंधेरे है।
और पीछे?
वो दुनिया जिसे मैं दाँव पर लगा आयी थी.........


**************************



मेरे रेत के घरोंदे,
हर रात कौन तोड़ जाता है??
अक्सर सोचती,
हर सुबह,
नया घर बनाते हुए।
आज सुबह,
तुम्हारे पाँव पे मिट्टी लगी हुई देखी........

बुधवार, 25 अगस्त 2010

तारें,
टिमटिमाएंगें नहीं,
घुंघरुओं की तरह बजेंगे..

अपनी ही राख की
किसी दबी हुई चिंगारी से
जल उठेंगे
सपनो के अलाव..

रेगिस्तानों में
जंग लगी चरखी की
आवाज़ से
जाग जायेंगे
सोये हुए कुओं के पानी..

बारिश,
हो चुकी होगी..
धूप से भरी
दहलीज़ पर
बैठकर
पढूंगी तब
तुम्हारी दी हुई
आखरी किताब...

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

सपने जो सोने नहीं देते


एक लंबा सफर,
इक छोटा सा सपना...
जादुई संकेतों की
अस्पष्ट अजनबी भाषा के नए शब्द गढ़ने के लिए
उसे कुशल कारीगर बनना है. 
सोचूंगी यही..
अच्छा होता अगर वो चला आता.
रोकूंगी नहीं पर..
प्रेम नहीं रोकता,
सपने तलाशने से.
वो,
मुझसे और उन लोगों से...
बेहतर है,
जो जानते ही नहीं उन्हें तलाश किसकी है.
हम सब फैंकते रहते हैं पासे भविष्य जानने के लिए 
और दे देते हैं अपने आज का आधा हिस्सा इसी में.
निराश नहीं होना उसे 
वह जानता है ..
रात का सबसे अँधेरा पहर भोर से ठीक पहले आता है 
उसे बस पांव के निशान छोड़ते जाना है. 
हवाओं को सब मालूम होता है. 
वह जब चूमेंगी उसके चेहरे को वो  जान लेगा  
 .....मैं अभी जिंदा हूँ... 
और उसका इंतज़ार कर रही हूँ. 
दोष नहीं दूँगी..
उसके चले जाने पे. 
वो मुझे तब भी प्यार करेगा और मैं उसे. 
जबकि दुनिया का इतिहास बनाने में 
उसकी भूमिका पहले से तय है .
मैं सपने देखना फिर भी नहीं छोड़ती.

सोमवार, 26 जुलाई 2010

प्रेत बोलते हैं

 

क्या और कोई भी, रास्ता नहीं था तुम्हारे पास ?


अरे ! न... न...
तुम मेरे दोषी तो हो ही नहीं सकते...

बस कुछ है,
कुछ है जो...


क्यूँ न,
कोई छत मेरे ऊपर आ गिरती .

या फिर...
यूँ किया होता,
ढेर सारी स्लेटी गोलियां और...
...
किस्सा ख़त्म !

मुझसे पूछा होता बहाना...



क्या सच में,
इस तरह...
मेरा मरना जरूरी था ?

या फिर...
उसे तो हटा दिया होता सामने से.
कैसे चीखती ?
आवाज...
जैसे गले में अटककर रह गयी थी.
वो...
वो खड़ा था न वहां पे,
वो जो रोटी के सेक से लाल हुए मेरे हाथ देख कर...
रुआंसा हो उठता था.

कैसे चीखती ?
वो ज़ो देख रहा था मुझे जलते हुए.
वो अगर दौड़ के लिपट ही जाता मुझसे...

कैसे सोया होगा बची हुई रातों में मेरे बिना
सुबकता रहा होगा नींद में भी वो...
मुझे आखरी बार उसे सीने से लगाने देते
बस इतना ही कहती,
मेरा राजा बेटा है न तू...
देख, मुझे याद करके रोना नहीं...
न !!

क्या सच में और कोई भी, रास्ता नहीं था तुम्हारे पास ?

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010



हाथ छूटा है जब से
कुछ तो कम कम सा है
उलटती पलटती हूँ
हाथों को
कई बार
अंगूठी के
इक इक नग को गिना है
हर बार पूरे निकले
..सात..
हाँ..
..हथेली पे मेरी
इक तिल हुआ करता था
तुम्हारी उंगलिओं में देखो ज़रा...
..शायद...


* * * * * * * * * * * * * * * *







दो प्यालों में
दो दो ही क्यूब्स तो डाले थे
जाने क्यूँ
फिर भी तुमने प्याले बदल लिए
चाय तो तुम्हारी भी उतनी ही मीठी थी
तुम भी न..
....कितने फ़िल्मी हो गये थे....

रविवार, 27 जून 2010

पढ़ के फेंकी गयी
अखबार की तरह
इधर उधर उड़ती रहती है..

लगातार,बिना थके
घुमते जाते बैलो के गलें में बंधी
छोटी छोटी घंटियो की आवाज़ गुंजाती

पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
या फिर
खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.

दूर जा के
फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी

लय में चलती चक्की पर
थिरकते पिसते गेहूं सी

फासलों की दीवार फांद
उम्मीद की टहनी पे
आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...

*    *     *    *
*    *     *    *

ज़िन्दगी के रंगमंच पर
काली रात का पर्दा गिरता है
उम्र का इक और उजला दिन
किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
उदास सी कर देती है
आँखों के कोनों को
गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...

शुक्रवार, 25 जून 2010

घर का ये  पीछे वाला आखरी कमरा...
जहाँ,
तब भी , रखा रहता था कुछ जरूरी
 
और पड़ा रहता था कुछ गैरजरूरी

पेटियों में अगले मौसम के साफ धुले कपड़े,
तब भी पड़ी रहती थीं ,दीवारों पर पिछली पीढ़ियो की धूल जमीं तस्वीरे.

पीतल और ताम्बे के रिवाज़ बदल चुके बर्तन.

खिड़कियो पे लगे मोटे पर्दों को कभी कभार,
हटा के चुपके से,
किसी सपने को उड़ता देखती..
..बीत चुके दिनों को उधेड़ती..
मुस्कुराती आशाओं से,
आने वाले कल को टांकती पिरोती थी ज़ो..
अब वहां उस कमरे में नहीं है वो..
घर की सबसे बड़ी लड़की ...
रखे होने और पड़े होने मैं बस  एक कल का फासला...
ज़रूरी से गैर जरूरी हो जाने मैं वक्त का एक छोटा विराम.
बस और क्या.

सोमवार, 7 जून 2010

किसी किसी रात के
पिछले पहर
अचानक कई बार
मेरी नींद उचट जाती है.

सोचती हूँ

तुम भी तो नहीं
मुझे ही याद कर रहे हो कहीं
मुझे ये भी डर है
कहीं तुम टहलते टहलते
छत पे चाँद देखने न चले जाओ
मुझे पता है तुम्हारे अंधेरों का
तुमने तो सिर्फ देखे है
और मैंने
मैंने तो महसूस किये है
याद है
पिछली बार
तीज का चाँद देखने छत पे गये थे
आखरी सीढ़ी के बाद भी 
इक और सीढ़ी समझ ली थी तुमने
गिरते गिरते बचे थे


क्या पता तुम मेरे लिए 
 
कोई ख़त ही लिख रहे होगे
चाहे मैं
जानती नहीं हूँ सारे के सारे अर्थ
और कई बार तो यूँ भी होता है
तुम्हे पढने की कोशिश में मैं निरक्षर हो जाती हूँ
फिर भी कोशिश करूंगी तुम्हारा लिखा
गुनगुनाने की

उन जगी रातों की
सुबहों के सिरहानों पे अक्सर
पुराने खतों की महक जैसे
ख्वाब मिलते है मुझे..



गुरुवार, 13 मई 2010





जादूगरनी रात जिस तरह
सम्मोहित करती है
उजालो को
ठीक उसी तरह 
तुम्हारा अक्स
मेरे वजूद पर छा जाता है.
तुम्हीं कहो
कहाँ ढूँढूं तुम्हें
कि रात भूल से भी
नहीं छोड़ा करती अपनी परछाई कभी



ये इत्तफाक था या लाज़मी ?
कि
तुम वक़्त का
इक नन्हा सा टुकड़ा
जब कर रहे थे मेरे नाम
तभी बिरह के अनगिनत पल
सेंध लगा रहे थे वहीँ 



मैं इक इक निशान पे
रख देती लफ़्ज़ों को
और तय कर लेती फासले सारे
उड़ते पंछिओं के
पैरों के निशां नहीं हुआ करते.




मुझे अब तक नहीं मालूम
कि उस दिन 
तुम्हारी आँखे
हँसती थी
बोलती थी
या फिर उदास सी थी..



सुना है सड़क के
उस हिस्से पे
धूप में
बेमौसमी  बारिश 
हुआ करती है इन दिनों.
जहाँ कुछ पल
ठिठके थे तुम
जाते जाते.




तुम्हारे
वहीँ होने का भ्रम
हिलते हाथ, मुड़ती पीठ
दिखती है मुझे अब भी
आँख झपकते ही
तुम्हें न पा कर वहां
मैं अचानक रो देती हूँ
जबरन रोके भी पानी
भला कहाँ रुकते है.


तेरे जाने के बाद
ढूँढती रहती हूँ
अमर बेल की जडें
जिस्म की मिट्टी में
तुम्हारी आवाज अब भी
लिपटी हुई है..

रविवार, 2 मई 2010

दीवार पे अब भी ,
निशां है चौरस से,
वहां कभी,कोई,
तस्वीर रही होगी.

उभरता है कोई घर..
दरवाजों की दरारों से,
सटी ख़ामोशी.

मुझे याद है अच्छी तरह से..
अब भी नज़र आती है,
दहलीज़ पे खड़ी वो,
गर्म हवाओ से,
उड़ता आँचल ,
सर पे टिकाती.
तेज़ धूप से बचने को,
आँखों पे हाथ की ओट बनाती.
इंतज़ार,
डाकिये का,
किसी के ख़त का.
खुश्बूओं को उल्टती ,पलटती.
इससे पढ़वाती,
उससे जवाब लिखवाती..

लिखने वाली मैं,
आगे मिले जाके तुम्हे..
उसके दुपट्टे की,
चिड़ियाँ,
खुले आस्मां में,
उड़ने लगती.

मुझे याद है अच्छी तरह से..
इक दिन,
चिट्ठी नहीं,
इक तार आई..
चट्टान सा उसका चेहरा,
चेहरे की चुप्पी,
चुप्पी में न ख़त्म होने वाला इंतज़ार.
इंतज़ार,
बह चुके पानिओं का..
चूल्हे की आग ,
फूंक मार के जलाती.
धुंए से,
सुरमयी आंखे,
धुआं धुआं हो जाती..
आदतन,
निगाह दरवाज़े की तरफ अब भी उठती .
दुप्पटे की चिड़िया पर अब नहीं उडती.
उसकी लरजती आवाज़ ,
मेरी पीठ से आज भी टकराती.
" कुड़े! डाकियां नई आया अज्ज?"

शनिवार, 1 मई 2010

may day

वो आता,
बिना बोले जुट जाता,
चुपचाप काम में..
कांटता,छांटता,
तराशता,
लकड़ी को..
आकार देता,
साकार करता..

अनदेखा करता,
हाथ में चुभी फाँस को..

साल दर साल,
कई घर बनाता,
किसी की याद में,
भविष्य की कल्पना में,
या अतीत के किसी सपने का,
दबी दबी ज़ुबां में,
इक आध गीत गुनगुनाता..

अपने बनाये शाहकार को,
देखता सर उठा के..
फिर नया घर बनाने में,
लग जाता,सर झुका के..

उसका नाम?
नहीं..
उसका नाम तो कोई भी नहीं जानता..

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

पुन :आऊंगा

तुम,
जिसे मैं याद करती हूँ.
.

 ..याद करती हूँ,
शरद ऋतू में,
आंगन में छिटकी चांदनी,
जाने अब कब आयेगी..

जब बगीचे में,
चंपा या जूही की,
नाज़ुक सी डाली पे,
लहलहाया था पहला फूल..

जब कोई मेघ,
किसी एक पहाड़ी से सटा,
मधुर गर्जन करता हुआ,
बिखेरता था स्वर्गीय छटा..

सूरज मिलके जलकणों से,
जादूगरी दिखाता..
जाने कैसे कैसे,
अनुपम इंदरधनुष बनाता..

साँझ ढले,
आकाश का पहला तारा,
अस्ताचल में जाते हुए,
मानो..
कहता है ,
मुस्काते हुए,
"पुन :आऊंगा"

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

दिव्य स्वप्न

बिन नर्तक के नृत्य जैसा,
बिन गायक के गायन जैसा,
मधुर मिलन के,
दिव्य स्वप्न सा,
मुझसे मिलने य़े कौन आया था..

झड झड गये पीले पत्ते,
नई कोपलें देखी,
गुलमोहर के लाल फूल ,
और अमलतास के पीले..


बैसाख की तपती दोपहरी में,
नेह बरसा था बूंदों में..
पवन बसंती का इक झोंका,
इठलाया उसकी आँखों में..

बादल ,बिजली,
सूरज .चंदा,
सब था उसकी बातों में..

हाथ में गर्मी,
औस सी नरमी..
नजर की तितली,
टटोले चेहरा..
हाथ पे चुम्बन,
अब तक ठहरा..

आलिंगन से टूटी नींदे,
क्या जाने अब कितने युग,
इन स्पर्शो की स्मृति में बीतें..

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010


क्यूँ न चुरा पाए वो पल..
के मिलना न लगता इक ख्वाब..
हालाकि तब भी ख्वाब लगा,
और अब भी..

टेबल पे गिरा पानी,
अनछुए सैंडविच,
यूँ ही पड़े फ्रेंच फ्राइज़
भाप उड़ा उड़ा  के आखिर ठंडी हुई कॉफ़ी,
और गर्म होते जूस,
सब यू ही पड़े थे,
और जाने का वक़्त भी आ गया?

ऐसे कैसे?

टेबल पे पड़ी चीजों के साथ मैं भी वही रह गयी,
तुम्हारी यादो के साथ..
कहाँ लौट पाई वहां से..

चीज़े भी कैसी होती है न..
अभी थी अभी नहीं..

तुम मुझसे और मैं..
मैं भी तुमसे..
मिलना चाहते थे गले..
..पर..
पर सिर्फ हाथ मिलाये हमने..

जानां..
सुनो...
सुनो न...
चलो न इक बार वापिस चले..
वो सैंडविच ,वो कॉफ़ी
ठन्डे हो जायेंगे..
उनकी खातिर चलो न..
रेस्तरां का कोना सूना होगा..
चलो न उसकी खातिर चले..

अच्छा ठीक है..
कुछ भी कह लेना मुझे.
शोना..
बिट्टू..
और बकवास इंसान भी...
पर इक बार चलो फिर से वहां..

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

उदास लड़कियां..

बंद खिड़कियो के पीछे,
उदास लड़कियां ..

रेशमी रुमाल पे,
नाम लिखती,
और रंग बिरंगे धागों से काढ़ती उदास लड़कियां..

खारे पानी में भिगो के,
दुपट्टो पे,
कच्चे रंग चढ़ाती उदास लड़कियां..

मेहँदी की नाज़ुक पत्तियो को,
चुन चुन के,
तोड़ती,पीसती भिगोती और सजाती उदास लड़कियां..

टूटी कांच की चूड़ी,
हथेली पे फिर से तोडके,
किसी बिछड़े हुए का प्यार तोलती उदास लड़कियां...

शाम ढले काले कैनवस पे,
खींचती एक बिंदु चाँदी रंग का
और जगा देती उदास लड़किया..

जमा जमा के पैर रखती,
सीढियां उतरती,
शांत पानी में हलचल मचाती,
अपनी गहरी उदासियो में उतर जाती उदास लड़कियां...

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सोचती हूँ..

अलंकृत रहूँ,
या फिर,
स्वछन्द बनूँ?

शिखर बिंदु,
या फिर,
 नुक्ता भर?

कल्पना के पंख लगा लूँ,
या फिर,
 शिल्प के  जौहर में बंधू?

बना दूँ कोई जादूई फ़ज़ा,
या फिर,
अपनी उड़ान में मस्त रहूँ?

कैदी पंछी के तरह बहर में रहूँ,
या फिर,
मुक्त उडू?

काएदे में रहूँ,
नज़ाकत से बैठूं,उठूँ..
सजुं,संवरू..

नये तेवर,नये स्वर,नये अंदाज़ दिखौं दूँ..
या फिर,
हदबन्दियो में रह के,
काव्य कला के नियम निभा दूँ..



मुझसे भी तो कोई पूछे के  मैं क्या चाहूँ...

मंगलवार, 30 मार्च 2010

याद है..
वो पीपल पुराना सा.
डलकती,लटकती,
उलझती शाखाये.
झूलें कई पड़े थे ,
मगर,
टूटी नहीं कभी,
बोझ से उसकी बाहें..

ताश की बाज़ी,चोसर के पासे,
हंसी के ठहाके,
कुछ गहरी सी बातें.
कुछ छुपना छुपाना,
कुछ मिलना मिलाना..

अमावास को जलाये,
कई दिए थे पड़े,
मन्नतो के धागे,
बरसो से थे बंधे..

कई बदले मौसम,
कई आई ऋतुए .
लिपटती डोरें ,
उतरती पतंगे.
डलती शामें,
लौटते परिंदे.
खुशनुमा यादो के,
बुझने लगे सूरज.
कोई पूछने न आये,
क्यूँ उदास है छाँव,
और क्यूँ चुप हो गये साए..

उम्र के आखरी पडाव में,
रह जाती ही तन्हाई ,
और बस चंद यादें ..

सोमवार, 22 मार्च 2010

बीजी

मैं दबे पांव जाके,
हमेशा डरा देती उनको.
और वो,
बस मुस्कराती.
पढ़ रही होती कोई किताब
या रेडियो पे सुन रही होती,
अचार सब्जिया बनाने के नये नये ढंग ..

खिड़की से धूप भर आती कमरे में.
और मैं नाचते थिरकते धूल के कण,
पकड़ने की कोशिश करती.
मुझे पूछती खाने के लिए और
जवाब सुने बिना घुस जाती रसोई में.
कमरे में छोड़ जाती अपनी महक.
हर जगह बसी थी उनकी महक.
पलंग के नीचे पड़े ट्रंक में.
अलमारी में पड़े कपड़ो में,
परदे के पीछे पड़ी चद्दरो में.
हर जगह ही तो बसी थी उनकी महक..

अब मैं दबे पांव नहीं आती.
अब बीजी नहीं है,
कही भी नहीं.
पर उनकी महक अब भी है..
अब भी धूप का चकोर नन्हा सा टुकड़ा,
कभी दीवार पे,
कभी फर्श पे नाचता रहता.
सूरज उठता जाता पल पल.
धूप खिसकती जाती तिल तिल..

कमरा उदास है अब,
दीवारे शांत,
पुराने पंखे की ऊँची अजीब आवाज़..
टीवी जितने बड़े रेडियो की,
पीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर छूटे जा रहे है..

शनिवार, 20 मार्च 2010


धुली,
गीली सी,
यादों से,
आहिस्ता आहिस्ता.
कई ख्याल,
सरक के गिरते,
रफ्ता रफ्ता.
उलझती सोचो को,
 संवारा हमने.
अटकती बातों से,
सहलाया उन्हें.
बेख्याली में,
बांधा फिर उम्मीद की,
किसी गांठ से.
सुनहरी फूल इक ख्वाब का भी,
टांका उसमे.
इक सुरमयी शाम यूँ,
मुहब्बत की नज्म हो सिमटी..
ये मुलाकात भी,
पिछली की तरह ही निबटी..

गुरुवार, 11 मार्च 2010

सरजू

मैंने,
चाहे कोई भी कक्षा पाक कला की नहीं लगाई .
पर मैं,
रोटिया सेंकती ,मीठा पकाती.
मैं लीपती चूल्हा,घर बुहारती.
यूँ तो,
मैंने चित्रकारी भी नहीं सीखी कभी.
पर मैं दहलीज़ के अंदर रंगोली बनाती.
कच्ची दीवारों पे फूल पत्ते तराशती.
भले ही,
अर्जुन की तरह ध्वनि सुनकर तीर चलाना नहीं आता.
पर बिना देखे ही बस सुन के आवाज़े,समझ जाती.
अनजानो से और अपनों से भी घुंघट निकालती.
जो नाम,मैं नहीं रख पाई,
उन नामो से बच्चो को पुकारती.
दुनिया से मेरा बस इतना वास्ता,
मैं टीवी रिमोट का लाल बटन,
और पति के सेल फोन का हरा बटन जानती..

सोमवार, 8 मार्च 2010

साथ साथ,
साफ साफ,
चाहे कुछ ही पल के लिए,
पर चौंका देती है..
कुछ बाते..

मंदिर के बाहर,
प्रसाद के लिए लगी लम्बी कतार में,
मची भगदड़ और तस्वीरे खींचता,
कोई डिज़िटल कैमरा..

जनसंहार से दहल जाते है दिल,
इक बार तो.
जबकि नाभिकीय परीक्षण हो रहे है लगातार..

नववधु की असमय मौत और
 मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भारतीय सुन्दरी प्रथम..

बुझा चूल्हा नहीं जलेगा नहीं जलेगा.
''भारत बंद ''किसी धार्मिक संगठन का ऐलान..

औरते जो हर रोज़,
मीलो दूर से पानी लाती.
कोसो दूर से चारा.
या कोई फैशन शो में हो रही कैट वॉक..

दंगे और सेलफोन.
अनपढ़ता या धार्मिक कट्टरपन..

ये कोई कविता नहीं,
किसी भाषा के रोज़ प्रयोग में आने वाले कुछ शब्द मात्र है,
गढ़ लेते है जिनके अर्थ सुविधा अनुसार हम..
हमारी अंतिम प्राथमिकता.

ज्यादा सोचने कि जरूरत नहीं..

सोमवार, 1 मार्च 2010

लिख लिख के ,
मिटा देना चाहती हूँ..

कैनवास  पे,
सभी रंगों को गडमड कर दूँ.

पानी में छपाक छपाक,
छींटे उडा के चलूँ.

ताश की बाज़ी,
बारी बारी,
खुद ही खेलते हुए हार जाऊ.

अमावस पे,
चाँद को न आने के उलाहने दूँ..

साज़ को सज़ा दे दूँ,
ख़ामोशी की..

पूरब सूरज के बिना रहे,
फूल मना कर दे खिलने से..

जाते हुए दिन को,
सुबक सुबक के,
पीछे से आवाज़े दूँ..
के रुक जाओ..

..लेकिन..
बिना आंसू पोंछे,
सूरज की आग में,
 ख्वाहिशो की,
आहुति दे दूँ..

मैं ये सब,
बासबब,
बाइरादा ,
पर बेवजह चाहती हूँ..

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

इतिहास के पृष्ठों में,
कब का चुप है.
लटकते सवाल लिए अपने सर पे..

..दब जाता है,
कौम जात,
रीति रिवाज़,
वाद विवाद के बोझ तले..
डर जाता है,
कतरे ब्योंते कानून से..

जंग की खबर से,
बिलखने लगता है.
रोटी की फ़िक्र में,
सहम जाता है.
maslow's law के ,
पहले ही पडाव में,
छुप जाता है,
किसी अँधेरे कोने में,
गुच्छा सा होके..

रुक नहीं पाता,
तेज़ धार के आगे और
डूब जाती है कोई सोहनी..
कच्चा घड़ा,
बेबस छटपटाता है..

मात खाता है,
जब सारे तरकश,
पहुंच से दूर हो जाते है.
तब जंड सा जड़ हो जाता है..

ढाई ही अक्षर है ,
इसलिए  अक्सर कम पड़ जाता है..

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

कच्ची पगडंडियो से,पक्की सड़क का सफ़र.
तपती जलती,दोपहर को निकलते थे हम.
चुपके चुपके हवेली से,आम के बागो की तरफ.
झोली में भर लेते कच्चे,खट्टे आम.
सूखे पत्ते, दबे पांव चलने पे भी करते थे कचर कचर.
बुढ़िया जब तक न भगाती लाठी लेकर.
यूँही बेफिक्र घूमते रहते इधर से उधर.
बाग से निकल कर कर लेते नदी का रुख हम.
दूर तक बहती थी जाने किधर जाती थी.
सावन के महीनो में ऊपर तक भर जाती थी.
गोल टीका जो आस्मां में मुस्कराता था,
कांपते पानी में रह रह के थरथराता था.
मजार पे पीर की दिए जलते थे.
मन्नते मांगते लोग दुआ करते थे.
कच्चे पक्के कुछ ही घरो से मिलके बना था.
कोई ऊँचा भवन और महल नहीं था
अच्छा था,
.मेरे गाँव में कोई शहर नहीं था..

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

फैंक दी गयी कबाड़ में से,
ढूंढ़ते है..
कुछ बच्चे,
कुछ सुंदर चीज़े.

बीनते बीनते,
मिल जाते है उनको,
कभी कभी..
टूटी चप्पले,
बिना सर की गुड़िया,
कोई पूरी चूड़ी,
या फिर,
कोई खोटा सिक्का..

अनभिज्ञ है वो,
नीले समंदर की सुन्दरता से,
सूर्य से धरती की दूरी कितनी है,
वो नहीं जानना चाहते.
वो नहीं जानते कि क्या हो,
अगर रुक जाये मशीने सभी किसी क्षण ..
वो आकाश में जाते जहाज़ को देख,
समझते है,
युद्ध होने वाला है..

तंग मांद जैसी,
गलियो में रहने वाले बच्चो का,
प्रिय खेल है-गाडियो के पीछे दौड़ना..
या फिर गिलहरी की पूंछ को हाथ लगाना..
कवि ने पढ़ ली उनकी आँखों की  उदासी,
और पिरो दी  शब्दों के ताने बाने में..
पर उन्हें नज़र आते है बस चंद काले धब्बे..

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

सुबह सूरज दिखा दो अभी,
रात शबनम गिरा  दो अभी,

क्या हुआ, क्यूँ हुआ, कब हुआ?
बात सारी भुला दो अभी.

आग जंगल की बुझ जाएगी
घर का  चूल्हा जला  दो अभी.

ख्वाहिशें हैं सफ़र की अगर,
सरहदों को मिटा  दो अभी.

सब्र शामों का होता नहीं,
चाँद छत पे बुला  दो अभी.

बात उनमें नहीं है अगर,
उनसे नज़रें  हटा दो अभी.



हाँ वो दिल  को भले से लगे,
कोई उनको बता दो  अभी.

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

आस्मां की बंद खिड़किया ,
सभी खुल गयी..
धरती जो धूल धूल थी,
देखो,
कैसे धुल गयी..
सीली सीली,
खुशबू खिली.
कायनात मौली हुई..
तिनके तिनके,
जोड़ के,
बनने लगे,
नये घोंसले..
ज़िन्दगी जो,
दुबकी पड़ी थी,
अंगडाइया लेने लगी..
कितना जादू,कितनी मस्ती..
हर दिशा शादाब है..
ये फागुन का शबाब है,
या तेरी संदली मुस्कान है..
तूं ही कुदरत,
तूं ही कादर..
हर शेय में तूं शुमार है..
फिर भी ,
इन अश्कबार आँखों में,
तेरा ही हसरते दीदार है...

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

उत्सव

 उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं.
इसलिए समाज से वाकिफ हो जाता है.

वो,
घबराता है हकीकत के चेहरों से.
और चला जाता है,
डिप्रेशन के तहखाने में.

उसे,
सिर्फ उसे..
दिखती है,
कभी दिवार पर,
कभी परदे के पीछे,
अनजानी परछाईया..

वो,
पहचान लेना चाहता है उन परछाईयो को..

वो,
या तो कवि बनता,
या फिर यौद्धा..

उसने सुनी होंगी
हा फिर पढ़ी होंगी,
यकीनन कभी न कभी,
मुर्दा दिलो में गैरत जगाने के बात..

अचेतन ही कविता कि किताब को बंद कर,

वो,
निकल पड़ता है..
युद्ध के मैदान में.

आमने सामने है दोनों.
इक तरफ ताक़त और
दूसरी तरफ वो..

वो,
दिमागी तौर पे जहीन है..
पर ठीक नहीं.. 

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

चांदनी से ,
 भर दी मैंने,
कलसी चाँद की..
..लबालब..

औंधा चाँद,
या
आधा चाँद.

बात रही पिघलती ,
उसमे..
रात रही  टपकती,
उससे..

हवा का झोंका,
ऐसे बहता..
चेहरा तेरा,
जगता बुझता..

सांसे,
तपी तपी सी..
आँखे,
धुली धुली सी..

कोयल ,
कही नहीं..
पर नभ में,
कुहू कुहू..

माना बेमाया है..
पर..
ये रुत,ये बहार,ये हवा..
ये रात,ये चाँद,ये समाँ..
ज़िन्दगी यही तो है,
जीना हर लम्हा लम्हा..




मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

मेरी सोच को लफ्ज़ दे दो.
मैं कैसे लिखूं,
किस किस पे लिखूं.
कहाँ फैंक दूँ ,
अपनी सोच को.
सड़ने से पहले.
वो..
ढूंढ़ता फिरता था,
इधर उधर ,जाने किसे!
और बडबडाता जाता.


वो ..
पूछता है मुझे रोक के,
बताओ तो भला.
इक दिन हमे गर पता चले,
के ये जीवन तो इक सपना था.
कैसा लगेगा जब आँख खुल जायेगी .
आसमान के परे जो आस्मां है,
वो कैसा होगा.
न कोई प्यार न कोई दर्द,
और न ही होगा कोई ,
तेरा या मेरा आकार.
हो सकता है कि तुम हो हवा,
और मैं कोई तरंग.
बारह रंगों के इलावा भी,
हो वहां और चोसंठ करोड़ रंग.

मैंने डरते पूछा..
,,क्या चाहिए तुम्हे..

बोला..

या तो शून्य या फिर अनंत.
आओ बाँट ले सितारे सभी.
चमकीले,
 लाल और नीले,
तुम लेलो.
मुझे बस देदो वो,
दिखाई नहीं देते जो.
जिनकी,
रोशनी अभी तक नहीं पहुंची.
मैं सोचती रही
कहा देखा है इसे..

अरे हाँ..
पिछली सर्दियो,
सडक पे गोल दायरा खींच के,
अपने चारो तरफ.
हाथ जोड़ता था कभी और,
 सर को झुकाता था कभी.
यही था या इस जैसा कोई..
लोग कहते है कि
पागल है ये,
दूर रहो इससे..
पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद..

रविवार, 24 जनवरी 2010

सब खुश है अब..
सुबह सुबह,
बालकोनी में,
अकेले बैठ के,
रोज़ जैसी खबरों वाली,
अखबार के पन्ने.
चाय के घूँट और गुड डे.
दूर से सुनायी देती है,
किसी चर्च से हर इक घंटे बाद,
सुनायी देने वाली आवाज़.
नियमत वक़्त पे,
इक हाथ गाड़ी पे बैठा,
बिना टांगो वाला.
और इक बिना आँखों वाला,
गुज़र गये गली के इक छोर से दूजे तक,
चिल्लाते हुए या गाते हुए..
''दाता कोई आयेगा..
भला हो जायेगा.. ''
रात अधूरी सी नींद थी,
जाने क्यूँ.
गहने चुभते रहे रात भर शायद.
हर करवट तुम्ही नज़र आते थे..
पर मैं खुश हूँ और तुम भी तो..
अकेलापन क्या होता है,
सब जानते है .
पर कैसा होता है तुम जानते हो..
भीड़ के निरर्थक शोर में,
दबा देते हो आवाज़े खुद की,
पर तुम खुश हो..
चुन्नू भी खुश है,
तुम उसकी नज़र में सुपर मैन हो,
साईकल चलानी तुम्हारे बिना सीख ली उसने.
तुम लौटोगे तोहफों से दोनों हाथ भरके जब.
बढ चुके होंगे मेरे बदन के गहने 
और तुम्हारी आँखों के सपने भी..

उम्र के उस पडाव पे करेंगे हम 


आत्म मंथन 


आओ न 
अभी के लिए ढूंढ़ लेते है ,
कुछ पेचीदा सवालों के जवाब
अकड़ बकड़.....




--------------------------------------




सब तरफ पत्थर ही पत्थर ,
सफेद संगमरमर.
महंगी तस्वीरे,
दिलकश दीवारे,
कोनो में जगमगाती ,
रंगीन मोमबत्तिया.
फूल गुलदानों में,
पंछी पिंजरों में,
खुशबू हरसू,
संदल,गुलाब,
महकती अगरबत्तिया.
सपने पड़े है ओंधे मुंह.
जिस्मो के तहखाने में,
न धूप के निशान,
न आये बारिश नज़र.
हवा भी कही दूर से ही,
जाये गुज़र.
सजा हुआ है घर..


..मगर वो,
अनजान शिल्पकार हाथो का बना,
फरिश्तो की छांह वाला,
सितारों के आस्मां वाला.
मौसमी,रंगीन फूलो से सजा,
मिट्टी की खुश्बू से सना घर,
जाने खो गया अब कहाँ..


------------------------------




उसे पता था,
किसपे कौन सा रंग करना है,
या किसपे कौन सा रंग चडेगा.


वो उठाता जाता
इक इक टुकड़ा .
गरम रंग भरे पानी में डालता,
और सुखा देता.


अपनी मर्ज़ी से परे,
नये रंगों से सजे.
रंग बिरंगे टुकड़े.


रंगों का कोई अंत नहीं
और इंसानों का भी.


रंगसाज़ ने रंगी दुनिया सारी.


 

शनिवार, 23 जनवरी 2010

जब पिघली थी ,
आवाज़े
तेरी और मेरी.
आंखे,
भरी भरी सी लगी.
इस तरह शायद नदिया बनी होंगी.

टेढ़े,मेढे
रास्तो से गुजरती,
बहती,
सनसनाती.
किसी भक्ति में लीन
दरवेश के आगे से गुजरते वक़्त,
यूँ चुप हो जाती
जैसे,
तपस्या भंग करने का
श्राप नहीं लेना चाहती.

फिर भी,
जाने कैसे,
किसी दर्द का असर,
या दुआओ का करम था,
कि आखिर ये नदिया सूख ही गयी..
पर  पलकों पे इनका स्वाद अभी तक है..




























जान ही जायेगी अब तो लगता है,
तेरा आना नज़र नहीं आता.
कोहरे से विजिबिलिटी शुन्य है.

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

चाँद ढूँढेगा मुझे,
रात मातम करेंगी.
और मैं?
तुम हो जाउंगी तब.

सूरज रोयेगा,
सुबह 'टा टा' करेगी...
और तब,
मैं आउंगी ना,
तुमसे मिलने.

शाम सिंदूर भर देगी मेरी मञ्जूषा में,
'मरीन बीच' का ज्वार, पछाड़ खा के बेहोश हो जायेगा...
मेरे विरह में.

ग़ज़ल ग़ालिब से खय्याम हो जाएँगी
कविता छायावादी,
हर गुलाब और सुर्ख,
पतझड़ कोई रुत न होगी,
विरह कोई रस न होगा,
दर्द बीत जाएगा,
रेट घडी लेट जायेगी.
समय जनाना हो जाएगा,
और उम्र छुपा लेगा...

तब शायद...

मैं आउंगी !!!

कविता से उतरकर,
कैनवास से कूदकर,
तुम्हारी बनाई मूर्तियों से मूर्त होकर,
दौड़ते हुए, ....

क़यामत का दिन...
इतनी शिद्दत से चाहती हूँ !!

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

कुछ वरक,
कुछ शब्द,
और कुछ किताबे.


किताबो जैसे लोग
या लोगो जैसी किताबे.


कुछ फ़ैली लीक से हटकर,
रह गयी कुछ सुंदर कवर में ,
सिमटकर.


पंचतंत्र
ज़िन्दगी यही से शुरू थी,
या इससे भी पहले कही.

कई पढ़ी थी शुरू से अंत तक,
कुछ जो बिकी थी हाट केक की तरह,
पढ़ी आधी ही मैंने,
शायद २६ पन्ने ही..

हर सस्पेंस नोवेल का अंत ,
शुरू में ही पढ लिया.

कुछ मैं न समझी,
कुछ ने मुझे न समझा..

इक पड़ी है अब भी कोरी किताब,
जिसे पढना है मुझे फुर्सत से,
सबसे आखिर में.
शुरू से अंत तक.

कभी कभी ही तो खुलती है
ज़िन्दगी की बंद किताब..

सोमवार, 4 जनवरी 2010

पढ़ा था,
किसी किताब में,

धरती गोल है.

देखी है,
धरती की दो खिड़किया,
जो लकड़ी फूलने से बंद हो गयी थी...

..या फिर,
मैंने ही हमेशा बंद देखी.


मेरे कदमो को पहचान थी ,
उसके चप्पे चप्पे की.
मेरे हाथो में स्पर्श थे,
उसके विशालकाय दरवाज़े के.

बाहर का कोई रास्ता दिखा ही नहीं..

बस,
दिखता था मेरे हिस्से का कैनवस जैसा ,
थोडा सा आस्मां..


सुनायी पड़ती थी..
चलती फिरती,
अबदन..
..अशरीर..
आवाज़े,

कल्पना और आवाज़े.

ज़र्द आवाज़े,

जादूगरनी की किसी..
..जो खिला देगी कोई ज़हरीला फल..


मीठी आवाज़े,
राजकुमार के चूमने से,
ज़ी उठेगी राजकुमारी फिर से..


कई बार चाहा के,
फांद लूँ ये दरवाज़ा इन्ही आवाजो के सहारे..


मिल गयी अगर ,
इन आवाजो में रोशनी गर तो क्या होगा?


और गर मेरा अस्तित्व ,
न आ पाया धरती की ग्रेविटी में तो?

सर्द आवाज़े.
कांपती आवाज़े,

चेताती आवाज़े.
भरमाती आवाज़े,


सुना है,
शायद कोई नई धरती मिली है..




त्रिवेणी (पहली जनवरी की headlines)

नया दिन,नया साल,नई उम्मीदें .
हो रही हैं अब भी मादा भ्रूण हत्या,
गिद्धों  को बचाने की  पहल.