घर का ये पीछे वाला आखरी कमरा...
जहाँ,
तब भी , रखा रहता था कुछ जरूरी
और पड़ा रहता था कुछ गैरजरूरी
तब भी पड़ी रहती थीं ,दीवारों पर पिछली पीढ़ियो की धूल जमीं तस्वीरे.
पेटियों में अगले मौसम के साफ धुले कपड़े,
पीतल और ताम्बे के रिवाज़ बदल चुके बर्तन.
खिड़कियो पे लगे मोटे पर्दों को कभी कभार,
हटा के चुपके से,
हटा के चुपके से,
किसी सपने को उड़ता देखती..
..बीत चुके दिनों को उधेड़ती..
मुस्कुराती आशाओं से,
आने वाले कल को टांकती पिरोती थी ज़ो..
अब वहां उस कमरे में नहीं है वो..
घर की सबसे बड़ी लड़की .....बीत चुके दिनों को उधेड़ती..
मुस्कुराती आशाओं से,
आने वाले कल को टांकती पिरोती थी ज़ो..
अब वहां उस कमरे में नहीं है वो..
रखे होने और पड़े होने मैं बस एक कल का फासला...
ज़रूरी से गैर जरूरी हो जाने मैं वक्त का एक छोटा विराम.
बस और क्या.
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