मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

ख्वाबो की गुलाबी दीवारें

 दीवार पर खिसकते हमेशा सूरज के बस में रहने वाली धूप के टुकड़े की तरह दिन धीरे-धीरे खिसक रहे है.रातें और ज्यादा खामोश हो जाएँगी.कोई किताब खत्म करके यूँही टकुर-टकुर इन दीवारों को ताका करूंगी.धरती आस्मां की तरह ये दीवारे यंही रहती है बस देखने वाली नज़रें बदलती रहती है.
गुलाबी रंग..क्या इन्हें भी पसंद होगा? कहीं इन्हें पीला रंग तो नहीं पसंद.कौन पूछता है दीवारों की मर्जी..ये बताती भी कहाँ है.बरसो बरस मौन खड़ी  रहती है इनके बस कान होते है ज़ुबां कोई नहीं.बस पुरानी दीवारों पर कुछ धुंध-धुंध चेहरा उभर आते है दिन चड़े वो भी भूल जाता है.नया रंग अपनी तहों में सब कुछ छुपा लेता है.कोई पहरा नहीं इनपर फिर भी कहीं आती जाती नहीं खुद पे खुद ही अंकुश लगाये रहती है.बना लो तो बन जाती है गिरा दो तो गिर जाती है..जहाँ-तहां तस्वीरें लगा दो..कोई रोष नहीं..प्रतिवाद नहीं..एक रंग के सिवा कुछ भी तो नहीं बदलता..वही दरवाज़े,वही खिड़कियाँ,वही तस्वीरें....
परछत्ती पर रखी एक-एक याद को,टूटी-फूटी कहानियों को,अधूरे फालतू छुपा के रखे ख्वाबो को झाड़ पोंछ कर देखूंगी जब तुम नहीं...
(ख्वाबो और किताबों की गुड़ती ही मिली है मुझको)  मैं उस दिन का तस्सवुर नहीं करना चाहती जब तुम...
तुम बेशक चले जाओगे पर मेरे पास भी उतना ही रह जाओगे...

तुम भी मुझे याद किया करोगे..हर वक़्त नहीं पर कभी तो सोचोगे..कहोगे पर कुछ भी नहीं..कुछ बातों के लिए शब्दों की जरुरत नहीं होती..यूँ भी पहाड़ तो मौन ही रहते है.पथरीले सूखे....पर जल का निर्मल कोई सोता तो उनके अंदर भी बहता रहता है..तुम मेरी हर जिद्द मान लेना चाहते हो पर कठोर बने रहते हो.हर बार यही कहते हो,"तुम बहुत फरमाइशी हो गयी हो.ये आखरी जिद्द है इसके बाद कोई जिद्द नहीं मानूगा."ज़ी चाहता है फिर से जिद्द करूं ...मत जाओ...पर बादल साया बनके हमेशा कब रहते है..जब तक बरसोगे मैं बारिश में सराबोर रहूंगी...