मंगलवार, 14 सितंबर 2010

लम्हात

तुम पहले पुरुष हो...
और मैं पहली स्त्री...
ऐसा कुछ याद तो नहीं पड़ता...
मैं भूल गयी हूँ,
ऐसा भी नहीं है....
ये प्यार भी नहीं है,
पहला पहला....
कई सदियो तक का सफ़र...
और फिर पहुंचा है हम तक....

जब होगा इक नया युग..

तब भी...
किसी पूर्व से निकलेगा कोइ नया सूरज,
और छिप जायेगा किसी नए पश्चिम में......
फिर छिड़ेगा पहली बारिश का अनहद नाद....

तब भी...
अवशेष दबे होंगे प्यार के,
किसी नज़म के तले..
कही कही होंगे निशाँ किसी दर्द के,
दबे पांव चलने के....
आँखे भी नम होंगी ज़रा ज़रा सी बात पर.....
मिल जायेगी कही दुबक के बैठी हुई मुस्कान भी......

वो नया युग होगा....
मैं पहली स्त्री हूँगी...
और तुम पहले पुरुष......


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रुक गयी...
छींक यूँ आते आते मुझको.....
तूं रह गया......
याद करते करते मुझको....
किसी और ख्याल ने,
रास्ता तेरा काटा होगा.......

दैनिक राशिफल-
आज कोइ शुभ समाचार मिलेगा.....


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तूं शर्मिंदा न होना...
न आ पाने पे अपने....
कोइ मजबूर हालात रहे होंगे......
मगर..
इक बार बताओ तो सही....
तुम
उस रोज़
आये क्यूँ नहीं???



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कई बार हटाया,
फ़िर आ ही जाते है....
दीवार के इस कोने में...
कभी उस कोने में....
महीन महीन,
कितने भी हटाओ...
आज या कल,
ये फ़िर होंगे....
ज़हन की दीवारों पे,
यादो के जाले......



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टूट भी नही पाता,
और जुड़ता भी नही....
सिमटता भी नही किसी तरह...
बिखरता भी नही है....
मेरा और तुम्हारा रिश्ता,

सदियो से लगी खुलती ही नही,
कई बार तुमने तोड़नी चाही
कई बार मैंने भी...
बड़ी पेचीदा गांठे है इसकी....



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तुम कहते हो चलो रोंप देते है,
गुलमोहर के पेड़ सडको के दोनों तरफ़।
ताकि आने वाली पीढिया कर सके,
इश्क की बातें इनके नीचे।
मैं पूछती हूँ पिछली पीढियो ने ,
ये क्यूँ नहीं रोपे ???


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शून्य से शीर्ष तक जाना था,
मुझे साथ तुम्हारे।
मन ही मन कुछ जोड़ के,
कुछ घटा के,
न जाने क्या सोच के।
तुम मुझे सिफ़र पे ही छोड़ गये।


मैं कहा जाऊँ अब?






मैं वाकिफ नही हूँ इन रास्तो से.
इस तरफ़ अकेलेपन का जंगल है.
तो उस और तन्हाई का समन्दर ।
आगे भी गहरे अंधेरे है।
और पीछे?
वो दुनिया जिसे मैं दाँव पर लगा आयी थी.........


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मेरे रेत के घरोंदे,
हर रात कौन तोड़ जाता है??
अक्सर सोचती,
हर सुबह,
नया घर बनाते हुए।
आज सुबह,
तुम्हारे पाँव पे मिट्टी लगी हुई देखी........