गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

बिल्कुल सीधे चलना सड़क के  मोड़ तलक....
फिर दायें...
...कि जैसे गली जुडती  है वहाँ,
वो जगह,
जहाँ गली के दोनों तरफ़ अशोक ...
बुतों से खड़े हैं,
वही पे धूल भरा...
...सामने का पहला मकां.
कि अब यही पहचान है उसकी कबसे,
गोया इंतज़ार कर रहा है बीते कई सालों से..
थोड़ा आगे..
किसी झरोखे में मद्धम सा दिया...
टिमटिमाता है सवेरे की अलसाई सी रोशनी में...
यूँ कि इक नज़र  उनीदीं आँखों की झाँक रहा हो उचक उचक के झरोखें से,
सुबह की पहली चाय से पहले उठा जो...
दिन भर फिर ऊँघता ही रहा...

एक मकान आम अमरूदों  के दरख्तों से घिरा...
चहचाहाता है सुबह होते ही,
चहचाहाता रहता है शाम होने तलक...
उसे ये  नाज़ है कि 
ज़िन्दगी बसी है तो बस उसी के घोंसलों में...
...वो एक मकान जो के घोसलों से मिल के बना है.
एक शर्मीला सा मकान अपनी ही बेल बूटों में छिपा.
घबराया सा...
सुबह पहली किरण से जाग जाता है...
 सुनहरी मकान ...
गली की आखिर में...
एक मकान बड़ा उदास सा है..
मन्दिर के बाहरवार..
..लकड़ियों की सीढ़ियों के ऊपर..
जरा झुका सा छज्जा..
गालों पर हाथ टिकाये..
..सोचता रहता हरदम..
...आम के बाग के पीछे...
गिरने को है जो मकान...
..अपने गुज़रे हुए कल लिए
बोने वाले की नीयत या मौसमों की मेहरबानी...
उसके आंगन के गुलाब अभी..महकते है...
ये मकान  कुछ भी तो बोलते नहीं...
फिर भी कुछ न कुछ कहते है...

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

कभी शदाय सा उठता है..
वक़्त को ले थाम..
छुपा ले निशानियाँ थोड़ी..
कहीं कुछ तो बचा ले..
धड़ाम-धड़ाम गिरती सभी सोचें..
..नर्म नाज़ुक रही होंगी...
तलवे जल जाया करते थे कभी..
बोच-बोच पैर  जब चला करते थे...
..अंगार अब नहीं बचे सुर्ख ईटों में..
...और तपिश सूरजों की भी हुई ठंडी..
एक पूरा महीना हुआ करता था बरसातों का..
...कच्ची छत की मिट्टी बहा करती थी परनालों से..
..बस...आज दीवारें ही बच पाएंगी..
छतें पक्की हुई कब की...
अब तो बरसातें भी छोड़ देती है.
कभी -कभी एक घर सूखा..
उन दिनों पलाश भी
कुछ इस तरह झड़ा करता था..
..सारी आंधियां मानो चली हो उसी पर...
वक़्त ने पूर दिए सब के सब कुएं..
..हर नक्शे में ढूंढा उसे..
जिसकी दीवारों से उगा करते थे नन्हें पीपल..
एक पलाश...पुर चुका कुंआं...और एक कच्ची छत..
वक़्त गुजर रहा है...
और...
एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
..आर-पार...