मंगलवार, 30 मार्च 2010

याद है..
वो पीपल पुराना सा.
डलकती,लटकती,
उलझती शाखाये.
झूलें कई पड़े थे ,
मगर,
टूटी नहीं कभी,
बोझ से उसकी बाहें..

ताश की बाज़ी,चोसर के पासे,
हंसी के ठहाके,
कुछ गहरी सी बातें.
कुछ छुपना छुपाना,
कुछ मिलना मिलाना..

अमावास को जलाये,
कई दिए थे पड़े,
मन्नतो के धागे,
बरसो से थे बंधे..

कई बदले मौसम,
कई आई ऋतुए .
लिपटती डोरें ,
उतरती पतंगे.
डलती शामें,
लौटते परिंदे.
खुशनुमा यादो के,
बुझने लगे सूरज.
कोई पूछने न आये,
क्यूँ उदास है छाँव,
और क्यूँ चुप हो गये साए..

उम्र के आखरी पडाव में,
रह जाती ही तन्हाई ,
और बस चंद यादें ..

सोमवार, 22 मार्च 2010

बीजी

मैं दबे पांव जाके,
हमेशा डरा देती उनको.
और वो,
बस मुस्कराती.
पढ़ रही होती कोई किताब
या रेडियो पे सुन रही होती,
अचार सब्जिया बनाने के नये नये ढंग ..

खिड़की से धूप भर आती कमरे में.
और मैं नाचते थिरकते धूल के कण,
पकड़ने की कोशिश करती.
मुझे पूछती खाने के लिए और
जवाब सुने बिना घुस जाती रसोई में.
कमरे में छोड़ जाती अपनी महक.
हर जगह बसी थी उनकी महक.
पलंग के नीचे पड़े ट्रंक में.
अलमारी में पड़े कपड़ो में,
परदे के पीछे पड़ी चद्दरो में.
हर जगह ही तो बसी थी उनकी महक..

अब मैं दबे पांव नहीं आती.
अब बीजी नहीं है,
कही भी नहीं.
पर उनकी महक अब भी है..
अब भी धूप का चकोर नन्हा सा टुकड़ा,
कभी दीवार पे,
कभी फर्श पे नाचता रहता.
सूरज उठता जाता पल पल.
धूप खिसकती जाती तिल तिल..

कमरा उदास है अब,
दीवारे शांत,
पुराने पंखे की ऊँची अजीब आवाज़..
टीवी जितने बड़े रेडियो की,
पीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर छूटे जा रहे है..

शनिवार, 20 मार्च 2010


धुली,
गीली सी,
यादों से,
आहिस्ता आहिस्ता.
कई ख्याल,
सरक के गिरते,
रफ्ता रफ्ता.
उलझती सोचो को,
 संवारा हमने.
अटकती बातों से,
सहलाया उन्हें.
बेख्याली में,
बांधा फिर उम्मीद की,
किसी गांठ से.
सुनहरी फूल इक ख्वाब का भी,
टांका उसमे.
इक सुरमयी शाम यूँ,
मुहब्बत की नज्म हो सिमटी..
ये मुलाकात भी,
पिछली की तरह ही निबटी..

गुरुवार, 11 मार्च 2010

सरजू

मैंने,
चाहे कोई भी कक्षा पाक कला की नहीं लगाई .
पर मैं,
रोटिया सेंकती ,मीठा पकाती.
मैं लीपती चूल्हा,घर बुहारती.
यूँ तो,
मैंने चित्रकारी भी नहीं सीखी कभी.
पर मैं दहलीज़ के अंदर रंगोली बनाती.
कच्ची दीवारों पे फूल पत्ते तराशती.
भले ही,
अर्जुन की तरह ध्वनि सुनकर तीर चलाना नहीं आता.
पर बिना देखे ही बस सुन के आवाज़े,समझ जाती.
अनजानो से और अपनों से भी घुंघट निकालती.
जो नाम,मैं नहीं रख पाई,
उन नामो से बच्चो को पुकारती.
दुनिया से मेरा बस इतना वास्ता,
मैं टीवी रिमोट का लाल बटन,
और पति के सेल फोन का हरा बटन जानती..

सोमवार, 8 मार्च 2010

साथ साथ,
साफ साफ,
चाहे कुछ ही पल के लिए,
पर चौंका देती है..
कुछ बाते..

मंदिर के बाहर,
प्रसाद के लिए लगी लम्बी कतार में,
मची भगदड़ और तस्वीरे खींचता,
कोई डिज़िटल कैमरा..

जनसंहार से दहल जाते है दिल,
इक बार तो.
जबकि नाभिकीय परीक्षण हो रहे है लगातार..

नववधु की असमय मौत और
 मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भारतीय सुन्दरी प्रथम..

बुझा चूल्हा नहीं जलेगा नहीं जलेगा.
''भारत बंद ''किसी धार्मिक संगठन का ऐलान..

औरते जो हर रोज़,
मीलो दूर से पानी लाती.
कोसो दूर से चारा.
या कोई फैशन शो में हो रही कैट वॉक..

दंगे और सेलफोन.
अनपढ़ता या धार्मिक कट्टरपन..

ये कोई कविता नहीं,
किसी भाषा के रोज़ प्रयोग में आने वाले कुछ शब्द मात्र है,
गढ़ लेते है जिनके अर्थ सुविधा अनुसार हम..
हमारी अंतिम प्राथमिकता.

ज्यादा सोचने कि जरूरत नहीं..

सोमवार, 1 मार्च 2010

लिख लिख के ,
मिटा देना चाहती हूँ..

कैनवास  पे,
सभी रंगों को गडमड कर दूँ.

पानी में छपाक छपाक,
छींटे उडा के चलूँ.

ताश की बाज़ी,
बारी बारी,
खुद ही खेलते हुए हार जाऊ.

अमावस पे,
चाँद को न आने के उलाहने दूँ..

साज़ को सज़ा दे दूँ,
ख़ामोशी की..

पूरब सूरज के बिना रहे,
फूल मना कर दे खिलने से..

जाते हुए दिन को,
सुबक सुबक के,
पीछे से आवाज़े दूँ..
के रुक जाओ..

..लेकिन..
बिना आंसू पोंछे,
सूरज की आग में,
 ख्वाहिशो की,
आहुति दे दूँ..

मैं ये सब,
बासबब,
बाइरादा ,
पर बेवजह चाहती हूँ..