शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

पुन :आऊंगा

तुम,
जिसे मैं याद करती हूँ.
.

 ..याद करती हूँ,
शरद ऋतू में,
आंगन में छिटकी चांदनी,
जाने अब कब आयेगी..

जब बगीचे में,
चंपा या जूही की,
नाज़ुक सी डाली पे,
लहलहाया था पहला फूल..

जब कोई मेघ,
किसी एक पहाड़ी से सटा,
मधुर गर्जन करता हुआ,
बिखेरता था स्वर्गीय छटा..

सूरज मिलके जलकणों से,
जादूगरी दिखाता..
जाने कैसे कैसे,
अनुपम इंदरधनुष बनाता..

साँझ ढले,
आकाश का पहला तारा,
अस्ताचल में जाते हुए,
मानो..
कहता है ,
मुस्काते हुए,
"पुन :आऊंगा"

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

दिव्य स्वप्न

बिन नर्तक के नृत्य जैसा,
बिन गायक के गायन जैसा,
मधुर मिलन के,
दिव्य स्वप्न सा,
मुझसे मिलने य़े कौन आया था..

झड झड गये पीले पत्ते,
नई कोपलें देखी,
गुलमोहर के लाल फूल ,
और अमलतास के पीले..


बैसाख की तपती दोपहरी में,
नेह बरसा था बूंदों में..
पवन बसंती का इक झोंका,
इठलाया उसकी आँखों में..

बादल ,बिजली,
सूरज .चंदा,
सब था उसकी बातों में..

हाथ में गर्मी,
औस सी नरमी..
नजर की तितली,
टटोले चेहरा..
हाथ पे चुम्बन,
अब तक ठहरा..

आलिंगन से टूटी नींदे,
क्या जाने अब कितने युग,
इन स्पर्शो की स्मृति में बीतें..

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010


क्यूँ न चुरा पाए वो पल..
के मिलना न लगता इक ख्वाब..
हालाकि तब भी ख्वाब लगा,
और अब भी..

टेबल पे गिरा पानी,
अनछुए सैंडविच,
यूँ ही पड़े फ्रेंच फ्राइज़
भाप उड़ा उड़ा  के आखिर ठंडी हुई कॉफ़ी,
और गर्म होते जूस,
सब यू ही पड़े थे,
और जाने का वक़्त भी आ गया?

ऐसे कैसे?

टेबल पे पड़ी चीजों के साथ मैं भी वही रह गयी,
तुम्हारी यादो के साथ..
कहाँ लौट पाई वहां से..

चीज़े भी कैसी होती है न..
अभी थी अभी नहीं..

तुम मुझसे और मैं..
मैं भी तुमसे..
मिलना चाहते थे गले..
..पर..
पर सिर्फ हाथ मिलाये हमने..

जानां..
सुनो...
सुनो न...
चलो न इक बार वापिस चले..
वो सैंडविच ,वो कॉफ़ी
ठन्डे हो जायेंगे..
उनकी खातिर चलो न..
रेस्तरां का कोना सूना होगा..
चलो न उसकी खातिर चले..

अच्छा ठीक है..
कुछ भी कह लेना मुझे.
शोना..
बिट्टू..
और बकवास इंसान भी...
पर इक बार चलो फिर से वहां..

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

उदास लड़कियां..

बंद खिड़कियो के पीछे,
उदास लड़कियां ..

रेशमी रुमाल पे,
नाम लिखती,
और रंग बिरंगे धागों से काढ़ती उदास लड़कियां..

खारे पानी में भिगो के,
दुपट्टो पे,
कच्चे रंग चढ़ाती उदास लड़कियां..

मेहँदी की नाज़ुक पत्तियो को,
चुन चुन के,
तोड़ती,पीसती भिगोती और सजाती उदास लड़कियां..

टूटी कांच की चूड़ी,
हथेली पे फिर से तोडके,
किसी बिछड़े हुए का प्यार तोलती उदास लड़कियां...

शाम ढले काले कैनवस पे,
खींचती एक बिंदु चाँदी रंग का
और जगा देती उदास लड़किया..

जमा जमा के पैर रखती,
सीढियां उतरती,
शांत पानी में हलचल मचाती,
अपनी गहरी उदासियो में उतर जाती उदास लड़कियां...

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सोचती हूँ..

अलंकृत रहूँ,
या फिर,
स्वछन्द बनूँ?

शिखर बिंदु,
या फिर,
 नुक्ता भर?

कल्पना के पंख लगा लूँ,
या फिर,
 शिल्प के  जौहर में बंधू?

बना दूँ कोई जादूई फ़ज़ा,
या फिर,
अपनी उड़ान में मस्त रहूँ?

कैदी पंछी के तरह बहर में रहूँ,
या फिर,
मुक्त उडू?

काएदे में रहूँ,
नज़ाकत से बैठूं,उठूँ..
सजुं,संवरू..

नये तेवर,नये स्वर,नये अंदाज़ दिखौं दूँ..
या फिर,
हदबन्दियो में रह के,
काव्य कला के नियम निभा दूँ..



मुझसे भी तो कोई पूछे के  मैं क्या चाहूँ...