रविवार, 29 जुलाई 2012

बेफिक्र बचपन सी डायरी

ख्वाहिशों..ख्वाबों ..ख्यालों..से भरी बेफिक्र बचपन सी डायरी..कई पन्ने सिक्को से भरी गुल्लक से खनकते है.और कई पन्नों की तन्हाई अभी तक नहीं टूटी..कोई भी ख़्याल उनके हिस्से में नहीं आया होगा ..कई ख़्याल भी ऐसे हुए होंगे कि उनके मनपसंद का पन्ना इस डायरी में नहीं होगा.खोने से पहले वो मेरे पास थी.उसपर बहुतों की नज़र थी....दरअसल ..वो मेरी थी भी नही....नाम के सिवा कुछ नहीं लिखा था..

कई महीने इंतज़ार करने पर भी जब उसके पन्नों की चुप्पी नहीं टूटी तो वो मेरी हो गयी..मेरी होने पर भी कई रोज तक वो कोरी की कोरी रही..मुझे समझ नहीं आता ..क्या लिखूं..कोई भारी भरकम भाषा के वाक्य लिखना चाहती थी..सोने से पहले उसे एक बार देखती उसके पन्नों को छू कर देखती और सोचती क्या लिखूं..फिर अपनी कोर्स की किताब से ये लिखा "तोतिया मनमोतिया,तेनू आख रही..तेनू वर्ज रही..तूं उस देश ना जा..."
हालाँकि जरूरत मुझे ज्यादा थी पर मेरी सहेलियां किताबों में विद्या के पौधे की पत्तियां रखती थी तब उसमें मैंने गुलाब का फूल रखना चुना.मुझे पता था...किताबों में फूल रखे जाते है..उस गुलाब में अब खुश्बू नहीं बची है..पर उसकी खुशबू पता है... मुझे.सारे गुलाबो की खुश्बू एक जैसी ही होती है..सुर्ख पत्तिओं में से कुल चार बची है बस...
इसमें लिखने के लिए कोई गंभीर विषय नहीं चुना..कुछ जन्मदिन की तारीखे...कुछ इम्तिहानों की..कुछ फोन नम्बर और कुछ पुराने पते..ग्रीटिंग कार्ड्स में लिखी शुभकामनाये..किताबों,अख़बारों, रिसालो ,गीतों ग़ज़लों में जो पसंद आया लिखती गयी..कुछ आधा अधूरा भी ...जैसे लिखते लिखते अचानक से उठ गयी हुंगी.."गुजर जाओ बचकर हर एक याद से...."
शाम तलक मिट्टी में घर बनाती,,आवाज़े दे दे कर बुलाई जाती कि अब बस भी करो...थोड़ा पढ़ भी लो...किताबें खुली रहती ध्यान मेरे घर में अटका रहता..पढ़ने की औपचारिकता खत्म होते ही फिर भाग जाती ..अपने घर को सूखी रेत से ढक देती..किसी को पता ना चले कि फिर मिट्टी में गयी थी चुपके से बिना हाथ धोये सोने चली जाती..हथेलिओं से मिट्टी झाड़ कर अपनी प्यारी डायरी को खोल कर देखती..फिर सिरहाने नीचे छिपा देती..उसको छूने से आज भी हाथ जाने क्यों रेत रेत हो जाते है..
एक रात बीजी साखी(प्रेरणादायक कथा) सुना रहे थे तो मैंने उनसे पूछा कि मर कर सब लोग कहाँ जाते है..उन्होंने कहा..आस्मां में सितारें बन जाते है...मैंने पूछा ...आप भी सितारा बन जाओगे..याद नहीं शायद उन्होंने हाँ ही कहा होगा..
डायरी में एक सीले से पन्ने पर लिखा है "मुझे पता नहीं चल रहा आस्मां में कौन से वाला सितारा बीजी बने है"

एक पन्ने पर मैंने बस एक ही लाइन लिखी है..बाकी खाली है-"मुझे जहाज़ के पीछे भागना पसंद नहीं..पीले जहाज़ के पीछे तो कभी भी नहीं..."
गाँव में अक्सर एक हैलीकॉप्टर आता था पीले रंग का ..गाँव के ऊपर रंग बिरंगे कागज़ गिराता हुआ निकल जाता..सभी बच्चे कागज़ उड़ने की दिशा में भागने लगते पीछे पीछे मैं भी:(..कागजों के पीछे कई गलियां..खेत पार करने पड़ते..जी जान की बाज़ी लगानी पड़ती..फिर जिस बच्चे के हाथ एक आध कागज़ लग जाता वो "हीरो" बन जाता और मिन्नतों खुशामद के बाद वो कागज़ देखने भर के लिए देता..कई देर बाद पता चला कि उस पर लिखा रहता था कद्द लम्बा करने के लिए फ़लां डॉ को मिले :-\..

‎"एक रात चुपके से कोई सारे घोड़े खोल क्यूँ नहीं देता"
निस्सीम अन्धकार में डूबा ये खाली अस्तबल गाँव के बाहर वार अब भी है....जैसे वक़्त का कोई टुकड़ा प्रशंसा या किसी लालच में रुक गया हो..पत्थरों से बना बिना दरवाजों का खाली अस्तबल..सीलन और मिटटी लपकती रहती...किसी के उचाट मन जैसे उबड खाबड़ इंटों के फर्श..जहाँ बारिशो में पानी इकठ्ठा होता..गर्मी में पयाल बिछती..एक बदरंग दीवार से पीपल का तना जंगले पर घुमते घोड़ो को ताकता रहता..घुटी हुई सी किरणें टूटी छत्त से हवा में तैरती रहती..ऐसा कुछ नहीं अब वहां की जिसकी चर्चा की जाये.न घोड़े..न ताँगे..न कोई हाथ घोड़ों की पीठ थपथपाते..न चाबुक बजते..सडक पर कोई टाप संगीत नहीं सुनाती..ताँगे नहीं अब तो लोग सुख दुःख की गठरी जाने किधर रखते होंगे..बाल्टी से घटघट पानी पीते बिना चेहरा उठाये आपकी तरफ देखते घोड़े..हाय! कितने उदास हुआ करते थे..