रविवार, 27 मार्च 2011

कहाँ तलाश करूँ? जाने किसे?

हसीन ख्याल,
अजाब-ए-जान बन जाते हैं.
ख्यालों की छाया को वर्कों पे उतारने का मन होता है.
पर एक भी पन्ना खाली नहीं मिलता...

चाँद,
कभी शरमाया हुआ
कभी सोगवार नज़र आता है.
बादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं.

तेज़ हवा,
पत्तों से टकराती हैं तो उदास सी आवाज़ हो आती हैं.
ऐसे में,
खिड़की के बाहर,
शाम की रोशनी के ख़त्म होते ही,
पेड़ों पे बिखरी-लिपटी बेलें मासूम सी नज़र आती हैं.
तुमसे किस मौसम की बात छेड़ दूँ ?
कि बिन मौसम के मौसम की बात भी नहीं की जा सकती.
है न?

परिंदा,
अकेला...
डाल से बिछड़ा,
फिर भी,
कानों में आसमानी मौशिकी घोलता है.
नपी तुली आवाज़ में,
जाने क्या क्या भविष्यवाणी करता है?
ज़ल्दी-ज़ल्दी से चोंच में दाना लिए
कहीं दूर से उड़कर आता है.
घास के तिनकों की नरमी में इश्वर की ख़ुश्बू बसी होती है.

रसोई,
खुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों.

एगज़ोज्ट-फैन,
बरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए.

तुम,
आँखें बंद करके लेटे हुए सुनते रहते हो,
मेरे दिनभर की जमा बातें.
फासलों की ख़ामोशी में मेरी आवाज़ तब तुम तक नहीं पहुँचती,
जब तुम कई बार सो जाते हो...
या नज़र बचा के साथ पड़े लैपटॉप को रिफ्रेश कर लेते हो.
मेरे पूछने पर कहते हो,
"कहाँ? मैंने तो इधर देखा भर बस,
सुन तो तुम्हें ही रहा हूँ."
जाने कैसे बही-खाते है जो सारा दिन लैपटॉप पे झुके पढ़ते रहते हो?
हालाँकि छत पे पहले से ज्यादा धूप रहती है, पर,
धूपों का मौसम अब जा रहा है,
उदासी भरी 'दोपहरें' पाँव पसार रही हैं.
अचानक से कोई 'वावरोला' उठता है और सारी सोचों को दरहम-बरहम कर जाता है.

किसी किताब के पन्ने,
पलटूं भी तो कितने?
पात्र किताबों से निकलते चलते चलते मेरे मन में दुनियाँ बसाने आ पहुंचे हैं.
काल्पनिक पात्र सच और असली बे-यकीनी होकर छलते रहे हैं.
कभी किताब से वो बाहर नहीं निकलते तो, मैं ही,
अपने आप से बाहर निकल,
उनमें खो जाती हूँ.
किसी और की ज़िन्दगी जी लेती हूँ.
खुद को देखती हूँ,
पूरा !
एक साथ !!

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

मुख़्तसर सी बात...

अच्छा ये बताओ,आज किसका नम्बर है?
किसका सपना देखोगी? :)
उफ़ जी चाहता है बाल नोच लूँ .उसके नहीं अपने.
चिढ़ के कहती हूँ,"तुम्हारा"
मेरा क्यूँ?
मेरा नहीं,रहने दो फिर,सपना तो किसी और का देखना होगा.
अच्छा  ये रहने दो,ये बताओ कि देखने नहीं आया कोई? :)
कोई आने वाला था न?
हाय रब्बा!! कितना बोलता है ये लड़का.
हाँ,देख गया..
ओह गुड..
बताया भी नहीं हमें.
मेरी मर्जी..
शाम ढलने लगी,पंछी भी लौट चले.बत्तियां जल उठी.मैं भी जाऊं अब?
ठीक है जाओ..

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तुम्हारी सभी तारीफ करते है.
तुम्हे सब चीज़े कैसे पता रहती हैं?
मुझे कुछ क्यूँ नहीं आता?
सब लोग ऐसे ही बोलते है,मैं  से खूब अच्छे से पहले से ही पढ़ के आता हूँ,जो भी सर पूछते है फट से बता देता हूँ.पता है परसों जो थियुरम करवाई थी वो मैंने घर जा के ५१ बार लिख लिख के देखि.५० बार में तो मुझे समझ नहीं आई थी.so practice makes a man perfect.
हम्म ..मेरा मन नहीं करता.
ऐसे थोड़े न चलेगा.अच्छा,दिखाओ अपनी नोट बुक.कल जो टोपिक मिला था,दिखाओ कितना लिखा तुमने?
बस इत्ता सा..इसे और लिखो.
नहीं और नही लिखा जाता..मुझे इत्ता ही आता है.
लिखा जायेगा,लिखोगे तो आएगा.
तुम लिख दो.
मैं??
मैं क्यूँ लिखूंगा?
जिसका काम वही लिखे,इसे और लिखो अभी..
हम्म...

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क्या बात..:)
बड़ी डिसकशन हो रही थी प्रीती से :)मूविस,गाने जाने क्या क्या..
हम्म..वो पूछ रही थी मैं बस बता रहा था.

आये हाय हाय...और क्या पूछ रही थी?
तुम्हारा भी दिमाग जाने क्या उल्टा-पुल्टा सोचता रहता है.
चलो रहने देते है.प्रीती कि नहीं नीता की बात करते हैं.तुम्हे कितना पसंद करती है एक दिन नहीं आते हो तो पूछती रहती है हर किसी से तुम्हारे लिए.और है भी सबसे सुंदर..तुम्हारी जोड़ी खूब अच्छी लगेगी.
हद्द है..कैसा उल्टा दिमाग है तुम्हारा.
अच्छा जी ,अपनी बारी आई तो मेरा दिमाग ही उल्टा हो गया.
ठीक है मुझे सारी लड़कियां पसंद है..प्रीती भी.नीता भी.नैना भी सुनयना भी.खुश..या और कुछ बाकी रह गया अभी.
हुं..मुझे क्या..


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कब जा रहे हो?
परसों..
कब आओगे?
पता नही..
अच्छा है..
तुम आराम से रहना अब..
कोई परेशान नहीं करेगा.
हम्म..
वो तो है...
तुम भी खुश रहना..
तुम्हे भी तो कोई परेशान नही करेगा.
हम्म..
रेत घड़ी हर रोज़ पलटती है....