मैं दबे पांव जाके,
हमेशा डरा देती उनको.
और वो,
बस मुस्कराती.
पढ़ रही होती कोई किताब
या रेडियो पे सुन रही होती,
अचार सब्जिया बनाने के नये नये ढंग ..
खिड़की से धूप भर आती कमरे में.
और मैं नाचते थिरकते धूल के कण,
पकड़ने की कोशिश करती.
मुझे पूछती खाने के लिए और
जवाब सुने बिना घुस जाती रसोई में.
कमरे में छोड़ जाती अपनी महक.
हर जगह बसी थी उनकी महक.
पलंग के नीचे पड़े ट्रंक में.
अलमारी में पड़े कपड़ो में,
परदे के पीछे पड़ी चद्दरो में.
हर जगह ही तो बसी थी उनकी महक..
अब मैं दबे पांव नहीं आती.
अब बीजी नहीं है,
कही भी नहीं.
पर उनकी महक अब भी है..
अब भी धूप का चकोर नन्हा सा टुकड़ा,
कभी दीवार पे,
कभी फर्श पे नाचता रहता.
सूरज उठता जाता पल पल.
धूप खिसकती जाती तिल तिल..
कमरा उदास है अब,
दीवारे शांत,
पुराने पंखे की ऊँची अजीब आवाज़..
टीवी जितने बड़े रेडियो की,
पीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर छूटे जा रहे है..
हमेशा डरा देती उनको.
और वो,
बस मुस्कराती.
पढ़ रही होती कोई किताब
या रेडियो पे सुन रही होती,
अचार सब्जिया बनाने के नये नये ढंग ..
खिड़की से धूप भर आती कमरे में.
और मैं नाचते थिरकते धूल के कण,
पकड़ने की कोशिश करती.
मुझे पूछती खाने के लिए और
जवाब सुने बिना घुस जाती रसोई में.
कमरे में छोड़ जाती अपनी महक.
हर जगह बसी थी उनकी महक.
पलंग के नीचे पड़े ट्रंक में.
अलमारी में पड़े कपड़ो में,
परदे के पीछे पड़ी चद्दरो में.
हर जगह ही तो बसी थी उनकी महक..
अब मैं दबे पांव नहीं आती.
अब बीजी नहीं है,
कही भी नहीं.
पर उनकी महक अब भी है..
अब भी धूप का चकोर नन्हा सा टुकड़ा,
कभी दीवार पे,
कभी फर्श पे नाचता रहता.
सूरज उठता जाता पल पल.
धूप खिसकती जाती तिल तिल..
कमरा उदास है अब,
दीवारे शांत,
पुराने पंखे की ऊँची अजीब आवाज़..
टीवी जितने बड़े रेडियो की,
पीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर छूटे जा रहे है..
laajawaab
जवाब देंहटाएंकिस लाईन को पकडू..
जवाब देंहटाएं"अब भी धूप का चकोर नन्हा सा टुकड़ा,
कभी दीवार पे,
कभी फर्श पे नाचता रहता"
"टीवी जितने बड़े रेडियो की,
पीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर छूटे जा रहे है.."
बहुत सुन्दर..
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ या फिर
जवाब देंहटाएंछूटे जा रहे है..
छोडना कौन चाहता है शायद छूटे ही जा रहे हैं
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति, गहरे एहसास
सुन्दर रचना
बहुत भावपूर्ण रचना!
जवाब देंहटाएंखिड़की से धूप भर आती कमरे में.
जवाब देंहटाएंऔर मैं नाचते थिरकते धूल के कण,
पकड़ने की कोशिश करती.
अरे वे तो बहुत सारे होते थे....
बीजी के प्रति आपकी भावुक अभिव्यक्ति से आपके अच्छे दिल के बारे में पता चलता. बहुत अच्छा शब्द चित्र खींचा है , बीजी की मुस्कान..... वाह !
जवाब देंहटाएंHello Dimple,
जवाब देंहटाएंIt is so good to read a new subject everytime when I read your compositions.
You are a beautiful person at heart as no one finds time to remember those elderly people in family but you did paid respect to her!
Magnificent... and I am touched...
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
बेहद मार्मिक रचना जो कि पढ़ने वाले को भी बीती हुईं यादों में ले जाती है..........."
जवाब देंहटाएंप्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
शायद असल डिम्पल नजर आयी मुझे इस बीजी के पीछे ....
जवाब देंहटाएंबीजी के प्रति आपकी भावुक अभिव्यक्ति से आपके अच्छे दिल के बारे में पता चलता. बहुत अच्छा शब्द चित्र खींचा है , बीजी की मुस्कान..... वाह !
जवाब देंहटाएंपीछे छूटती जिंदगी के तानो बनो के बीच ... बीजी के प्यार की महक ... कमाल का लिखा है ...
जवाब देंहटाएंस्मृतियों की सघनता ....पलकें नम करती रहीं ....अति सुंदर .
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंmarmsparshee.
जवाब देंहटाएंमुझे भी पीछे खींच ले गयी ........उनमे डुबती रही काफी देर तक .........बहुत बहुत शुक्रिया!
जवाब देंहटाएंपहली बार आया हूँ इस गली
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
आपके ज़ज्बात पड़कर
कुछ अपना सा लगा
यूँही पिरोते रहिये अपने दिले राज़
अन्दर-बाहर अपने जैसा भी लगा
कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/
बहुत मार्मिक रचना,सच ऐसे ही याद करते है हम भी अपने बिछुडों को
जवाब देंहटाएंन जाने आपके ब्लॉग का latest pudate मेरे dash board पर क्यों नहीं आ रहा है
जवाब देंहटाएंउदासी या ख़ुशी से अलग ज़िन्दगी की खुशबू है कविता.
जवाब देंहटाएं...सुन्दर भाव,प्रभावशाली रचना!!!!
जवाब देंहटाएंMai nishabd hun....manme ek kasak -see uthi...mujhe meri dadi yaad aa gayi..
जवाब देंहटाएंपठनीय
जवाब देंहटाएंटीवी जितने बड़े रेडियो की,
जवाब देंहटाएंपीली सी डंडी पूरी घुमा देती हूँ,
पर कोई स्टेशन नहीं पकड़ पाती हूँ.
शायद मैं ही जल्दी में सारे स्टेशन छोड़ जाती हूँ
या फिर छूटे जा रहे है..
जिंदगी के यह स्टेशन किसी रेडियो के स्टेशन की तरह हमारे पास नही आते..वरन् किसी ट्रेन के स्टेशन्स की तरह हमारी नजरों के सामने से एक-एक कर के गुजरते जाते हैं..और हम पीछे के स्टोशनों को पकड़ने की शिद्दत मे अगले स्टेशन्स भी उपेक्षित करते जाते हैं..
सोचता हूँ कि अगर जिंदगी मे ’रिवाइंड’ करने का ऑप्शन होता तो शायद स्टेशन्स पकड़ने की बेचैनी इस कदर नही होती..मगर कुछ स्टेशनों की फ़्रीक्वेंसी जब हमारी पकड मे आती भी है..वो बन्द हो चुके होते हैं...
behad touching rachna...kitne khoobsoorat tarike se aapne is rishte ko bayan kiya hai....bahut khoob
जवाब देंहटाएंGood this is the nice blogs
जवाब देंहटाएंkya likhu, kis kis line ki tareef karu, bas isi soch mein doobi baar baar is blog par aati aur phir chali jati
जवाब देंहटाएंbahut khoob Dimple
-Shruti