शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सूना-सूना सा आकाश
बसा है मकानों की छतों पे अभी..

परदें हटाओ गर
तो खिड़कियों पे..
 दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..

लिपटी पड़ी है उदासी सी
सीखचों पे भी..

मगर कभी गुटका करेंगे
कांपते कबूतर रोशनदानों में..

सर्द कागज़ पर बर्फ से लफ्ज़
पिघल निकलेंगे..

हरी हवा उगने लगेगी
पतझड़ी समय में..

डार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
नज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..

गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..

जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..

खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

कोमल कांपती..
ध्वनियों में बहती..
कानों में उतरती..
लबों पे थरथराती..
बीहड़ मन में
समा जाती सभी स्वर लहरियां..

अबूझ गीतों के अमिट भाव..
कुछ-कुछ शोकाकुल से..
मंद गति से खत्म होते-होते..
अचानक फिर से,
ऊँचे सुर पकड़ते..

शरीर और आत्मा
किसी अधम में तैरती...
शांत..
चेतनाशून्य..

तरंगे उठ रही है तब भी
बहरे कानो में..
सारंगी जबकि
टूट चुकी है अब कबकि..

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

नज़रे तैर के,
दूर चली जाती है
अतीत के फलक तक..

हालाकि याद नहीं ठीक से मुझको
पर कभी बहुत पहले पहल..
..वक़्त...
...रहा होगा..
यही कोई..
धूप का आखरी पहर.
.जगह..
..वही सीमेंट का बेंच..

तुमने कहा था-
अभी तो...
...नाचते है लफ्ज़ो के मोर
कोरे पन्नो पे..
खुशनुमा बादल बरसते है
जब शबनम की तरह..

तुमने कहा था
शायद..
..आने वाले मौसमों को सोच के..
कहीं यूँ न हो के दूर होके..
महसूस करें कोई कमी..
बिछड़ना बस में न रहे..
वक़्त को बीनते-बीनते
थक ना जाये कहीं...
चलो ऐसा करे..
..बात कम-कम करदें..

मुझे बस इतना बतादो...
ये कहते हुए..
...तुम्हारी आँखों में लरज़ रही थी धड़कने..
या कोई सैलाब उतर आया था..
तुम्हारे होंठों की मुस्कान
बराबर बनी हुई थी कि नहीं...