रविवार, 28 फ़रवरी 2010

इतिहास के पृष्ठों में,
कब का चुप है.
लटकते सवाल लिए अपने सर पे..

..दब जाता है,
कौम जात,
रीति रिवाज़,
वाद विवाद के बोझ तले..
डर जाता है,
कतरे ब्योंते कानून से..

जंग की खबर से,
बिलखने लगता है.
रोटी की फ़िक्र में,
सहम जाता है.
maslow's law के ,
पहले ही पडाव में,
छुप जाता है,
किसी अँधेरे कोने में,
गुच्छा सा होके..

रुक नहीं पाता,
तेज़ धार के आगे और
डूब जाती है कोई सोहनी..
कच्चा घड़ा,
बेबस छटपटाता है..

मात खाता है,
जब सारे तरकश,
पहुंच से दूर हो जाते है.
तब जंड सा जड़ हो जाता है..

ढाई ही अक्षर है ,
इसलिए  अक्सर कम पड़ जाता है..

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

कच्ची पगडंडियो से,पक्की सड़क का सफ़र.
तपती जलती,दोपहर को निकलते थे हम.
चुपके चुपके हवेली से,आम के बागो की तरफ.
झोली में भर लेते कच्चे,खट्टे आम.
सूखे पत्ते, दबे पांव चलने पे भी करते थे कचर कचर.
बुढ़िया जब तक न भगाती लाठी लेकर.
यूँही बेफिक्र घूमते रहते इधर से उधर.
बाग से निकल कर कर लेते नदी का रुख हम.
दूर तक बहती थी जाने किधर जाती थी.
सावन के महीनो में ऊपर तक भर जाती थी.
गोल टीका जो आस्मां में मुस्कराता था,
कांपते पानी में रह रह के थरथराता था.
मजार पे पीर की दिए जलते थे.
मन्नते मांगते लोग दुआ करते थे.
कच्चे पक्के कुछ ही घरो से मिलके बना था.
कोई ऊँचा भवन और महल नहीं था
अच्छा था,
.मेरे गाँव में कोई शहर नहीं था..

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

फैंक दी गयी कबाड़ में से,
ढूंढ़ते है..
कुछ बच्चे,
कुछ सुंदर चीज़े.

बीनते बीनते,
मिल जाते है उनको,
कभी कभी..
टूटी चप्पले,
बिना सर की गुड़िया,
कोई पूरी चूड़ी,
या फिर,
कोई खोटा सिक्का..

अनभिज्ञ है वो,
नीले समंदर की सुन्दरता से,
सूर्य से धरती की दूरी कितनी है,
वो नहीं जानना चाहते.
वो नहीं जानते कि क्या हो,
अगर रुक जाये मशीने सभी किसी क्षण ..
वो आकाश में जाते जहाज़ को देख,
समझते है,
युद्ध होने वाला है..

तंग मांद जैसी,
गलियो में रहने वाले बच्चो का,
प्रिय खेल है-गाडियो के पीछे दौड़ना..
या फिर गिलहरी की पूंछ को हाथ लगाना..
कवि ने पढ़ ली उनकी आँखों की  उदासी,
और पिरो दी  शब्दों के ताने बाने में..
पर उन्हें नज़र आते है बस चंद काले धब्बे..

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

सुबह सूरज दिखा दो अभी,
रात शबनम गिरा  दो अभी,

क्या हुआ, क्यूँ हुआ, कब हुआ?
बात सारी भुला दो अभी.

आग जंगल की बुझ जाएगी
घर का  चूल्हा जला  दो अभी.

ख्वाहिशें हैं सफ़र की अगर,
सरहदों को मिटा  दो अभी.

सब्र शामों का होता नहीं,
चाँद छत पे बुला  दो अभी.

बात उनमें नहीं है अगर,
उनसे नज़रें  हटा दो अभी.



हाँ वो दिल  को भले से लगे,
कोई उनको बता दो  अभी.

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

आस्मां की बंद खिड़किया ,
सभी खुल गयी..
धरती जो धूल धूल थी,
देखो,
कैसे धुल गयी..
सीली सीली,
खुशबू खिली.
कायनात मौली हुई..
तिनके तिनके,
जोड़ के,
बनने लगे,
नये घोंसले..
ज़िन्दगी जो,
दुबकी पड़ी थी,
अंगडाइया लेने लगी..
कितना जादू,कितनी मस्ती..
हर दिशा शादाब है..
ये फागुन का शबाब है,
या तेरी संदली मुस्कान है..
तूं ही कुदरत,
तूं ही कादर..
हर शेय में तूं शुमार है..
फिर भी ,
इन अश्कबार आँखों में,
तेरा ही हसरते दीदार है...

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

उत्सव

 उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं.
इसलिए समाज से वाकिफ हो जाता है.

वो,
घबराता है हकीकत के चेहरों से.
और चला जाता है,
डिप्रेशन के तहखाने में.

उसे,
सिर्फ उसे..
दिखती है,
कभी दिवार पर,
कभी परदे के पीछे,
अनजानी परछाईया..

वो,
पहचान लेना चाहता है उन परछाईयो को..

वो,
या तो कवि बनता,
या फिर यौद्धा..

उसने सुनी होंगी
हा फिर पढ़ी होंगी,
यकीनन कभी न कभी,
मुर्दा दिलो में गैरत जगाने के बात..

अचेतन ही कविता कि किताब को बंद कर,

वो,
निकल पड़ता है..
युद्ध के मैदान में.

आमने सामने है दोनों.
इक तरफ ताक़त और
दूसरी तरफ वो..

वो,
दिमागी तौर पे जहीन है..
पर ठीक नहीं.. 

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

चांदनी से ,
 भर दी मैंने,
कलसी चाँद की..
..लबालब..

औंधा चाँद,
या
आधा चाँद.

बात रही पिघलती ,
उसमे..
रात रही  टपकती,
उससे..

हवा का झोंका,
ऐसे बहता..
चेहरा तेरा,
जगता बुझता..

सांसे,
तपी तपी सी..
आँखे,
धुली धुली सी..

कोयल ,
कही नहीं..
पर नभ में,
कुहू कुहू..

माना बेमाया है..
पर..
ये रुत,ये बहार,ये हवा..
ये रात,ये चाँद,ये समाँ..
ज़िन्दगी यही तो है,
जीना हर लम्हा लम्हा..




मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

मेरी सोच को लफ्ज़ दे दो.
मैं कैसे लिखूं,
किस किस पे लिखूं.
कहाँ फैंक दूँ ,
अपनी सोच को.
सड़ने से पहले.
वो..
ढूंढ़ता फिरता था,
इधर उधर ,जाने किसे!
और बडबडाता जाता.


वो ..
पूछता है मुझे रोक के,
बताओ तो भला.
इक दिन हमे गर पता चले,
के ये जीवन तो इक सपना था.
कैसा लगेगा जब आँख खुल जायेगी .
आसमान के परे जो आस्मां है,
वो कैसा होगा.
न कोई प्यार न कोई दर्द,
और न ही होगा कोई ,
तेरा या मेरा आकार.
हो सकता है कि तुम हो हवा,
और मैं कोई तरंग.
बारह रंगों के इलावा भी,
हो वहां और चोसंठ करोड़ रंग.

मैंने डरते पूछा..
,,क्या चाहिए तुम्हे..

बोला..

या तो शून्य या फिर अनंत.
आओ बाँट ले सितारे सभी.
चमकीले,
 लाल और नीले,
तुम लेलो.
मुझे बस देदो वो,
दिखाई नहीं देते जो.
जिनकी,
रोशनी अभी तक नहीं पहुंची.
मैं सोचती रही
कहा देखा है इसे..

अरे हाँ..
पिछली सर्दियो,
सडक पे गोल दायरा खींच के,
अपने चारो तरफ.
हाथ जोड़ता था कभी और,
 सर को झुकाता था कभी.
यही था या इस जैसा कोई..
लोग कहते है कि
पागल है ये,
दूर रहो इससे..
पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद..