गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

कई लम्हे बीते,
कई साल,
कई युग,
महायुग..
..पर वो अब भी वहीँ था.
जान बूझ के,
या फिर,
यूँ ही,
नहीं निकाल पाया उसे कभी,
ये भी नहीं जानता कि वो तुम्हारा था भी कि नहीं.
पर इस भ्रम में अब भी सहलाता हूँ,
उदास आँखों से.
उस बाल को ,
जो स्वेटर में बुना गया था तुमसे,
सपने बुनते बुनते..




*                   *




अच्छा था,
वो वक़्त,
जो गिर गया घडी से कही,
वो बदल गया,
इससे पहले कि मैं उठा पाती उसे.
हैरान होती थी..
..देख के..

सभी पंछी कहाँ जाते है,
हर सुबह डार में,
और लौटते है हर शाम एक साथ.
कैसे आखिर माँ से बनती है गोल रोटी.
कहाँ जा के गिरते होंगे टूट के तारे सभी.
कोई कोई शाम ,
आसमानी असमान का रंग लाल क्यूँ हो जाता है..
..अच्छा था वो वक़्त,

जब अच्छे बुरे का भेद नहीं पता था मुझे,
नहीं जानती थी गध और पध में अंतर ,
नहीं जानती थी तुमको और खुद को भी,
नहीं जानती थी तुम्हारा और अपना नाम,
पहचानती थी सब को रंगों से..

..आज बदले वक़्त में जाना,
बस,
खुद के सिवा ,
सब सब को जानते है,
सूरज दिन को जानता है,
चाँद रात को,
मैं तुम्हे और तुम मुझे..

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

कहता है,
बरसो से नहीं सो पाया,
ज़ी भर के वो.
या फिर,
इक लम्बी सकून भरी नींद.
सोयेगा इस वीकेंड पे,
देर तक.
थक जाता है मशीनों के साथ जागते जागते,
बरसो से नहीं सो पाया है.


पर सोया रहता है,
अक्सर तब वो..
जब बातें करता है,
बेमतलब की.
जब हँसता है जरा जरा सी बात पे,
या बिना बात के रो देता है.
जब खोया रहता है किसी और दुनिया में,
जब यही होता है पर नहीं होता है.
तब वो सोया रहता है....

कितना कुछ निकल जाता है,
उसके आगे से,
पर वो कहा देख पता है वो सोया रहता है.
नहीं जानता खाने में कितना स्वाद था.
भगवान् को याद किया था जब,
तो नाम लिया था उसका कि नहीं.
सोया रहता है वो,
मेरे और तुम्हारे अंदर .
कब जागेगा वो ?
जो कहता है,
बरसो से नहीं सो पाया हूँ...

सोमवार, 21 दिसंबर 2009


किनारे  पे गिरा  पड़ा  था  वो,
ऐसे नहीं होनी थी उसकी मौत.
किसी  ने,
बेवजह  मार  गिराया  था  उसे
या कोई बड़ी वजह रही हो,
जैसे,
रास्ता  कम  पड़ा  होगा  किसी  की  highway   रफ़्तार के  लिए,
या,
कोई तूफ़ान, नयी फसलों की सोच का.

जड़  तक  को  भी निकाल  दिया  था.

पहले,
शायद,
बहुत देर तक.
ज़मीन खोदी गयी थी उसकी,


उसकी  जड़ों  पे  बैठ  के.
इक  परिंदा  कोइ  उदास  गीत  गा  रहा  था.


चला  जायेगा  ये  भी
किसी  नये पेड़   की  खोज  में
रह  जाएगी  तो  बस  समतल  सपाट  खोखली  ज़मीन
कोइ  निशां   तक  न  होगा,
कि  कोई यहाँ  पे  कभी  रहा  होगा.
और इस तरह.
नयी पीढ़ी के पंछी न जान पायेंगे,
और न ही 'वो पंछी' दे पायेगा  गवाही...
...अगर रहा तो.

बुधवार, 16 दिसंबर 2009


अभी,
वक़्त था...
पहली घंटी में,
मैंने,
राहत की साँस ली.

ऑडिटोरियम  से आ रही थी कुछ आवाजें.


दूर से ही,
दिखाई दे रहे थे.
सफ़ेद सलवार सूट,
और...
सफ़ेद मलमल के दुपट्टे,


मैं,
चुपचाप से,
शामिल हो गयी...
उन सब में.


शांति थी सब तरफ.
बस,
कॉरीडोर में आवाज़ें  थीं...
चलने से मेरे.

हिस्ट्री की टीचर ने,
चश्मे के ऊपर से...
मुझे घूर के देखा.


और,
बंद हो गयी,
खुद ही,
मेरे जूते की ठक ठक .


मैं,
अपनी पसंदीदा जगह पर थी.
इमली के पेड़ के नीचे.
जिसके,
नाज़ुक तने से टेक लगाकर,
मैं अक्सर देखती थी...
सामने के बाग़ में टहलते मोरों  को.
और,
तोड़ती रहती थी...
घास के तिनके,
बेख्याली में.



कहाँ  गयी वो आवाज़ें...
जो,
अभी तक तो...
हंसती,
खिलखिलाती,
मेरे पास बैठी थीं.



कुछ इक,
दूर.....
किताबों में गुम थीं.
कई,
गुज़री  थीं...
मेरे पास से,
हाथ हिला के,
मुस्कुरा के

कहाँ  गयी सब आवाज़ें??
मैंने हर डेस्क पे ढूँढा,
कोइ भी नहीं यहाँ तो.


कभी लिखा था,
पेन से...
खुरच खुरच के...
अपना नाम.
कितने नाम,
आज भी थे वहां,
और मैं भी.


इक डेस्क पे पड़ा था,
मेरा हिंदी का परचा,
जिसमे मैंने लिखे थे,
पूछे शब्दों के अर्थ,
प्यार का अर्थ मनुष्यता
और उम्मीद का भविष्य.
दोनों ही...
गलत कर दिए गये थे.


बेचैन हो के,
गेट की तरफ दौड़ती  हूँ,


रास्ता रोक लेता है,
इक आँख वाला
'गंगा राम गेट कीपर'
मांगता है,
मुझसे,
मेरा,
'आई कार्ड'



जो आज,
मैं लाना भूल गयी.
फिर चल देती हूँ,
 हॉस्टल  की तरफ ,
वार्डन के साईन जो लेने हैं,
कि,
मैं,
हॉस्टलर   नहीं डेस्कालर हूँ.
ऑडिटोरियम से आ रही थी अब तालियों की आवाज़.


सोमवार, 7 दिसंबर 2009

बहुत दूर कही हूँ ख़ुद से,
किसी अनंत खोज में।
सुनती हूँ अनगिनत आवाजों में से,
इक महकती आवाज़...
देखती हूँ
इक चेहरा
करोडो जुगनू भी फीके जिसके आगे....
चाहती हूँ
इक पाक,नाज़ुक ,स्पर्श...
इक अंतहीन खोज है शायद...









पत्थर थी कभी मैं,
तेरे छूने से जी उठी थी....
मीरा भी रही हूँ शायद कभी,
विष के प्याले
कितने युगों से पी रही हूँ ....
अभी भी पड़े है
इंतजार के न जाने कितने जन्म....
तूं चला जो गया इस बार भी
बिना मिले ही मुझे......







बहुत शोर सा उठता है मेरी रूह से।
फ़िर तड़प के खामोश हो जाती है।
कोई जहाज़ मेरी छत से गुजरा है अभी...

दर्द कम हो जाता है,
अगर बाँट ले तो...
तुमने और मैंने भी बांटा इसे
पर ये और बढ़ गया जाने कैसे
मिल के असीम हो गया शायद
आओ चुनके देखे अपने अपने दर्द
पहचान लो तुम अपना दर्द और मैं अपना...
रंग देखे है तुमने दर्द के?
कितनो ने लिखा है दर्द?
और कितना लिखा है न?
मगर पढ़ा है किसी ने इसे?
हाँ ...उस विरहन ने पढ़ा है,
जब भी उद्धव विकल्प हुआ,
उस आत्मा ने पढ़ा
जो भ्रमर गीत गाती रह गयी जन्मान्तर....
उस शरीर ने जो अवयक्त रहा...
पढ़ पाओगे इसे?
आज तुम्हारे लिए इसे लिखा है मैंने।
और तुम हर हरफ पढ़ना इसका...
जब तक की ये अनूनादित न हो...
आख़िर एक ही तो है,
मेरी रचना...
और तुम्हारा पढ़ना...
आखिर एक ही तो है मैं और तुम...
आखिर हमारा दर्द भी एक ही है...
थोडी दूरी है बस...
समय वाकई चोथा आयाम है......

रविवार, 6 दिसंबर 2009

कोई कोई नज़्म,
उलझ जाती है...
शब्दों के हेर फेर में.

या बढ़ नहीं पाती,
शुरू होने के बाद.

किसी,
शब्द के अभाव में,

और...
ख्यालों में ही दम तोड़ देती है अक्सर.

आधी अधूरी कोई नज़्म,
किसी,
अधूरे,
...रिश्ते कि तरह,

आओ...
संभाल के रख दें,
इस नाज़ुक से रिश्ते को,
किसी,
दराज़ में छुपा कर,
और भूल जाएँ इसे रख कर...
हमेशा के लिए.

शायद कुछ नज्में,
कुछ रिश्ते,
और कुछ लोग हमेशा रहते हैं...

आधे अधूरे.

अग्नि परीक्षा

एक वक्त था
तुम आज़माना चाहते
तो आज़मा लेते।
के इतनी शिद्दत से शायद ही
तुम्हे किसी ने
कभी चाहा हो।
मैं क्या न कर देती तुम्हारे लिए।
पर अब...
मैं कोई अग्नि परीक्षा नही दूंगी.



मैं कोई अग्नि परीक्षा नही दूंगी.
कह के मैं उदासी की धरती में,

चुपचाप समा जाती हूँ.

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

रात फिर,
समन्दर से हुई बात...
वो कहता रहा,
मीठी हो...
शीतल हो....

आखिर ,
क्यूँ मिलती हो मुझमे?
क्यूँ न ऐसा हो,
आज़ाद बहो,
और तुम,
खुश भी रहो....


क्या समझाऊं उसे?
आज़ाद बहूँ??
ओर खुश भी रहूँ??
तब जबकि,
मेरा मिलना उससे,
मेरी आदत नहीं,
मेरी नियति है....

मेरा मिलना उससे तय है,
सदियो से,
युगों युगों से.....

न बहूँ अगर,
रुक जाऊ जो मैं....
मर जाउंगी....
तलछट में पड़ी,
मिट्टी ही बस रह जाउंगी.....
तो इसलिए,
नदी को समन्दर में समाना ही होगा....
मेरा होना,
मेरे बहने में ही है,
ओर यही मेरे लिए,
सुखकर है, हितकर है
और हाँ,
यही नियति भी है......


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