गुरुवार, 13 मई 2010





जादूगरनी रात जिस तरह
सम्मोहित करती है
उजालो को
ठीक उसी तरह 
तुम्हारा अक्स
मेरे वजूद पर छा जाता है.
तुम्हीं कहो
कहाँ ढूँढूं तुम्हें
कि रात भूल से भी
नहीं छोड़ा करती अपनी परछाई कभी



ये इत्तफाक था या लाज़मी ?
कि
तुम वक़्त का
इक नन्हा सा टुकड़ा
जब कर रहे थे मेरे नाम
तभी बिरह के अनगिनत पल
सेंध लगा रहे थे वहीँ 



मैं इक इक निशान पे
रख देती लफ़्ज़ों को
और तय कर लेती फासले सारे
उड़ते पंछिओं के
पैरों के निशां नहीं हुआ करते.




मुझे अब तक नहीं मालूम
कि उस दिन 
तुम्हारी आँखे
हँसती थी
बोलती थी
या फिर उदास सी थी..



सुना है सड़क के
उस हिस्से पे
धूप में
बेमौसमी  बारिश 
हुआ करती है इन दिनों.
जहाँ कुछ पल
ठिठके थे तुम
जाते जाते.




तुम्हारे
वहीँ होने का भ्रम
हिलते हाथ, मुड़ती पीठ
दिखती है मुझे अब भी
आँख झपकते ही
तुम्हें न पा कर वहां
मैं अचानक रो देती हूँ
जबरन रोके भी पानी
भला कहाँ रुकते है.


तेरे जाने के बाद
ढूँढती रहती हूँ
अमर बेल की जडें
जिस्म की मिट्टी में
तुम्हारी आवाज अब भी
लिपटी हुई है..

रविवार, 2 मई 2010

दीवार पे अब भी ,
निशां है चौरस से,
वहां कभी,कोई,
तस्वीर रही होगी.

उभरता है कोई घर..
दरवाजों की दरारों से,
सटी ख़ामोशी.

मुझे याद है अच्छी तरह से..
अब भी नज़र आती है,
दहलीज़ पे खड़ी वो,
गर्म हवाओ से,
उड़ता आँचल ,
सर पे टिकाती.
तेज़ धूप से बचने को,
आँखों पे हाथ की ओट बनाती.
इंतज़ार,
डाकिये का,
किसी के ख़त का.
खुश्बूओं को उल्टती ,पलटती.
इससे पढ़वाती,
उससे जवाब लिखवाती..

लिखने वाली मैं,
आगे मिले जाके तुम्हे..
उसके दुपट्टे की,
चिड़ियाँ,
खुले आस्मां में,
उड़ने लगती.

मुझे याद है अच्छी तरह से..
इक दिन,
चिट्ठी नहीं,
इक तार आई..
चट्टान सा उसका चेहरा,
चेहरे की चुप्पी,
चुप्पी में न ख़त्म होने वाला इंतज़ार.
इंतज़ार,
बह चुके पानिओं का..
चूल्हे की आग ,
फूंक मार के जलाती.
धुंए से,
सुरमयी आंखे,
धुआं धुआं हो जाती..
आदतन,
निगाह दरवाज़े की तरफ अब भी उठती .
दुप्पटे की चिड़िया पर अब नहीं उडती.
उसकी लरजती आवाज़ ,
मेरी पीठ से आज भी टकराती.
" कुड़े! डाकियां नई आया अज्ज?"

शनिवार, 1 मई 2010

may day

वो आता,
बिना बोले जुट जाता,
चुपचाप काम में..
कांटता,छांटता,
तराशता,
लकड़ी को..
आकार देता,
साकार करता..

अनदेखा करता,
हाथ में चुभी फाँस को..

साल दर साल,
कई घर बनाता,
किसी की याद में,
भविष्य की कल्पना में,
या अतीत के किसी सपने का,
दबी दबी ज़ुबां में,
इक आध गीत गुनगुनाता..

अपने बनाये शाहकार को,
देखता सर उठा के..
फिर नया घर बनाने में,
लग जाता,सर झुका के..

उसका नाम?
नहीं..
उसका नाम तो कोई भी नहीं जानता..