मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

मेरी सोच को लफ्ज़ दे दो.
मैं कैसे लिखूं,
किस किस पे लिखूं.
कहाँ फैंक दूँ ,
अपनी सोच को.
सड़ने से पहले.
वो..
ढूंढ़ता फिरता था,
इधर उधर ,जाने किसे!
और बडबडाता जाता.


वो ..
पूछता है मुझे रोक के,
बताओ तो भला.
इक दिन हमे गर पता चले,
के ये जीवन तो इक सपना था.
कैसा लगेगा जब आँख खुल जायेगी .
आसमान के परे जो आस्मां है,
वो कैसा होगा.
न कोई प्यार न कोई दर्द,
और न ही होगा कोई ,
तेरा या मेरा आकार.
हो सकता है कि तुम हो हवा,
और मैं कोई तरंग.
बारह रंगों के इलावा भी,
हो वहां और चोसंठ करोड़ रंग.

मैंने डरते पूछा..
,,क्या चाहिए तुम्हे..

बोला..

या तो शून्य या फिर अनंत.
आओ बाँट ले सितारे सभी.
चमकीले,
 लाल और नीले,
तुम लेलो.
मुझे बस देदो वो,
दिखाई नहीं देते जो.
जिनकी,
रोशनी अभी तक नहीं पहुंची.
मैं सोचती रही
कहा देखा है इसे..

अरे हाँ..
पिछली सर्दियो,
सडक पे गोल दायरा खींच के,
अपने चारो तरफ.
हाथ जोड़ता था कभी और,
 सर को झुकाता था कभी.
यही था या इस जैसा कोई..
लोग कहते है कि
पागल है ये,
दूर रहो इससे..
पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद..

21 टिप्‍पणियां:

  1. यही तो है परम अभिव्यक्ति की खोज का
    का प्रयास .. यहाँ मुक्तिबोध की याद आ ही जाती है ! ...
    @आसमान के परे जो आस्मां है,
    वो कैसा होगा.
    --- '' मंजर इक बलंदी पर और हम बना सकते
    काश के परे होता अर्श से मकां अपना | '' ( ग़ालिब )
    @ अंतिम काव्य-खंड
    --- उस 'उस' और कविता में कितनी करीबी है , लोग तो
    दूर होने को कहेंगे ही !
    पर इसी ढीठपने से कविता आयी है न !
    जारी रहे यह बेपरवाह ढीठपन ! ... आभार ,,,

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  2. सोच यही तो होता है। जो देखता है एक टक, बगैर पलक झपकाये।
    बेहतर अभिव्यक्ति।

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  3. देवता की कभी पलकें नहीं झपकती ...
    हम भी एकटक{एक सुर में } ही पढ़ गए कविता पूरी ...आध्यत्मिक रंग लिए हुए ...
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...!!

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  4. बहुत कुछ कह गयीं आप अपनी इस कविता में हर शब्द हमेशा की तरह बोलता हुआ और दिल को गहराई तक छूता है

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  5. अरे हाँ..
    पिछली सर्दियो,
    सडक पे गोल दायरा खींच के,
    अपने चारो तरफ.
    हाथ जोड़ता था कभी और,
    सर को झुकाता था कभी.
    यही था या इस जैसा कोई..
    लोग कहते है कि
    पागल है ये,
    दूर रहो इससे..
    पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
    देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद..



    गर मुझसे पुछा जाए तो मै बस इन पंक्तियों को पूरी कविता कहूँगा .....

    wonderful.......

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  6. पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
    देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद.. what a contrast mam..nice.

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  7. या तो शून्य या फिर अनंत.
    आओ बाँट ले सितारे सभी.
    चमकीले,
    लाल और नीले,
    तुम लेलो.
    मुझे बस देदो वो,
    दिखाई नहीं देते जो.
    जिनकी,
    रोशनी अभी तक नहीं पहुंची...

    अंजानी कशमकश में डूबती.... उभरती ........ बंद गाँठों को खोलती हुई ........ बिन कहे बहुत कुछ बोलती हुई रचना ............ लाजवाब ..........

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  8. abhi tak is rachna mein khoyi si hoon...
    kya likhte hai aap...excellent job!

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  9. कभी कभी समझ नहीं आता यहाँ कौन बोलता है... एक भ्रम की स्थिति बन जाती है... न ये बेबाक है, न अनुशासित... बस बोरे पर बैठा दिन सामने से निकलता देखता हो जैसे... दृश्य ऐसे ही तो कैप्चर किये जाते हैं..

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  10. या तो शून्य या फिर अनंत.

    dil bhi bachhe sa zidd par ada hai
    ya to ise sab kuch chahiye ya phir kuch nahi

    -Sheena

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  11. Wow.....kya soch hai...sabhi ko is shoonya ya fir anant ki talash hai....farishto ki aankh na jhapkaane waali baat acchi lagi :-)

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  12. पल्ले नही पड़ा भई..और पड़ेगा भी नही लगता है..गोल दायरे के बीच बैठे बिना..अभी तो आँखे झपकती ही रहती हैं बस..

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  13. bahut sunder rachana............kuch hatke sochane par vadhy karatee rachana..........

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  14. Aise bhi koi soch sakta h...bahut alag...behad alag...
    Last lines are truelly beautiful...

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  15. sunder rachna

    http://sparkledaroma.blogspot.com/
    http://liberalflorence.blogspot.com/

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  16. जीवन एक सपना है, जिसे आत्मा देखती है- ओशो

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  17. I am totally speechless. The description of colours is so vivid. Although I have a science background, I did let my imagination run freely with you as I read through this beautiful and most creative piece of writing.You have given a new meaning to colours and circles.

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  18. लोग कहते है कि
    पागल है ये,
    दूर रहो इससे..
    पर वो मुझे घूर रहा था इक टक..
    देवताओ की आंखे नहीं झपकती इसलिए शायद..
    sundar

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  19. कायदे से आज आपकी तीन कवितायें पढ़ लेने के बाद मुझे कुछ और नहीं पढ़ना चाहिये था, लेकिन उत्सुकता वश चला आया एक और सफ़े पीछे।

    थोड़ी-सी निराशा हाथ लगी है अब के। नहीं, इसमें गलती मेरी ही है शायद कि मूड कुछ और सेट हो चुका था और ये वाली कविता कहीं और ले जाना चाह रही है।

    कविता पढ़ने के भी तो कायदे होते हैं ना।

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...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती.