बुधवार, 8 जून 2011

पता नहीं क्यों..आपसे कितना भी चिढ जाऊं..पर आपकी बात ना मानूं ऐसा नहीं कर पाती..आपने कहा था डायरी लिखूं...नहीं लिखना चाहती थी...फिर भी ....दुनिया बदल जाना किसे कहते है..मैंने अभी जाना नहीं था..एक दरवाज़ा बाहर की तरफ़ खुलता था ..एक अंदर की तरफ़..सामान उतारा जा चुका था..गाड़ी धूल की लकीर अपने पीछे छोड़ती हुई जाती दिखी...जी चाहा भाग के धूल का एक छोर पकड़ लूँ..पर..मैं अपनी जगह से हिली तक नहीं..ना बाहर जाने के लिए ना अंदर जाने के लिए..सब मेरी जानकारी में
मेरी मर्जी से हो रहा था..फिर भी मैं हैरान थी...मुझे पता नहीं ..मैंने कब अंदर जाने वाला दरवाज़ा खोला..दुनिया,बदल जाना मैंने जान लिया था..एक भी ऐसा चेहरा नहीं जिसे मैंने पहले देखा हो.ऐसी कोई भी आवाज़ नहीं जिसे पहले सुना हो..मैं वहां क्यों थी..मुझे वहां नहीं होना चाहिए था..मैं अपना भला बुरा नहीं जानती ..ना जानना चाहती हूँ......रेलिंग पर खड़े हुए सूर्य अस्त को देखती रही ..कितना बुरा लग रहा था उसका यूँ चले जाना..जाने कब आंसू बहने लगे कब हिचकियाँ बंध गयी..मुझे कुछ पता नहीं कितनी आवाज़े मुझे बहला रही थी..मैं किसी को नहीं जानती..मैं किसी को जानना भी नहीं चाहती..
मैं कुछ सुनना नहीं चाहती..मुझे यहाँ नहीं रहना..मुझे बस लौटना है अपनी दुनिया में..घंटो रो लेने के बाद मैं चुप थी..पर उदास..बेहद उदास....एक रात..एक सुबह..एक दोपहर ..कुछ ना खाने के बाद मैंने जाना भूख किसे कहते है..सूर्य  फिर जा रहा रहा..मैं गीली आँखों से उसे देखती रही..मुझे यहीं रहना है..मैंने आँखे उठा के सब और देखा..चेहरों को पहचानने की कोशिश की..पहले माले से चौथे  माले तक की सीढ़ियों को गिना..
कॉरीडोर में पड़े गमलो में पौधो को छुहा..खाना भी खाया......मैं वहाँ थी जहाँ मुझे नहीं होना चाहिए था..पर आप कहते हो कि वहीँ होना चाहिए था..आपकी बात मना नही कर सकती....