शनिवार, 26 दिसंबर 2009

कहता है,
बरसो से नहीं सो पाया,
ज़ी भर के वो.
या फिर,
इक लम्बी सकून भरी नींद.
सोयेगा इस वीकेंड पे,
देर तक.
थक जाता है मशीनों के साथ जागते जागते,
बरसो से नहीं सो पाया है.


पर सोया रहता है,
अक्सर तब वो..
जब बातें करता है,
बेमतलब की.
जब हँसता है जरा जरा सी बात पे,
या बिना बात के रो देता है.
जब खोया रहता है किसी और दुनिया में,
जब यही होता है पर नहीं होता है.
तब वो सोया रहता है....

कितना कुछ निकल जाता है,
उसके आगे से,
पर वो कहा देख पता है वो सोया रहता है.
नहीं जानता खाने में कितना स्वाद था.
भगवान् को याद किया था जब,
तो नाम लिया था उसका कि नहीं.
सोया रहता है वो,
मेरे और तुम्हारे अंदर .
कब जागेगा वो ?
जो कहता है,
बरसो से नहीं सो पाया हूँ...

14 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर... सरफ़रोश का गीत याद आ गया

    इस दीवाने लड़के को कोई समझाए...

    काश...

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  2. विलक्षण कविता है ये.बहुत सहजता से लगभग कैजुअल अंदाज़ में कही गयी बड़ी बात.इस सोने में खोने का भाव है.बहुत अरसा पहले पढी किसी की कविता याद आ रही है, उसमें भाव यद्यपि प्रशांति का है, इससे अलग, पर एक पंक्‍ति जो याद आ रही है---
    "मैं गर्भस्‍थ शिशु की तरह सोना चाहती हूं"
    बहुत सुंदर.

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  3. कमाल है..दिनो-दिन अब्स्ट्रैक्टनेस की ओर मुखातिब होती जा रही हैं आपकी कविताएं..हम कमअक्लों के लिये इतना मुश्किल तो न होती थीं पहले ..खैर किसी व्यक्ति के रचनाकर्म के ग्रो होते जाने के यही सिम्प्टम्स हैं..
    कविता एक रोचक सी बायॉग्राफ़ी के तरह शुरू होती है..
    मगर फिर..यहां पर कविता के मायने बदल जाते हैं..
    सोया रहता है वो,
    मेरे और तुम्हारे अंदर .
    कब जागेगा वो ?
    जो कहता है,

    बरसो से नहीं सो पाया हूँ..
    ..और फिर से दोबारा पूरी पढ़े जाने पर विवश कर देती है..इस नये दृष्टिकोण से..
    वैसे कभी-कभी तो अपना हाल भी ऐसा ही होता है..जब वीकेंड पर एक पूरकश नींद की जुस्तजू के सहारे पूरा हफ़्ता मशीनों की निद्राहीन सोहबत मे किसी मेकेनिकल रस्ते से हो कर गुजर जाता है..हाँ मगर शुक्र यह है कि हमारा अंदर का वह (अंतरात्मा जैसा कुछ) कुंभकरण है पूरा :-)

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  4. अपूर्व भाई ने सही फ़रमाया ..
    एक बार पढने में कविता नहीं खुली .
    फिर कई बार पढ़ा तो हर बार नयी -नयी
    होकर खुलने लगी ---
    '' रावरे रूप की रीति अनूप , नयो-नयो लागे ज्यों-ज्यों निहारिये ''
    जागृति में सोना और उस सोने में ' जागने के संकल्प (?)' की हकीकत को
    आपने बड़ी संश्लिष्टता के साथ प्रस्तुत किया है ..'' पर सोया रहता है, /अक्सर तब वो..
    /जब बातें करता है ..''
    अंत में तो सोचना ही पड़ता है - क्या यही है नियति !
    '' सोया रहता है वो,
    मेरे और तुम्हारे अंदर .
    कब जागेगा वो ?
    जो कहता है,

    बरसो से नहीं
    सो पाया हूँ...
    ............. सुन्दर कविता ... आभार ,,,

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  5. जागते हुए सोये लोगों को खूब जगाया है आपकी कविता ने ....!!

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  6. कमाल है..दिनो-दिन अब्स्ट्रैक्टनेस की ओर मुखातिब होती जा रही हैं आपकी कविताएं..

    लक्षणा?

    कविता एक रोचक सी बायॉग्राफ़ी के तरह शुरू होती है..
    अभिधा??
    मगर फिर. कविता के मायने बदल जाते हैं..
    व्यंजना ???

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  7. Ek rachna ke taur par kahoon to aaj ki life ko jo aapne shabdo se baandha hai wo bahut khoob hai.....Lekin hamara anter soya nahi.....jab kuch galat hota hai ya fir karte hai ham jaankar.....virodh hota hai wahan par...lekin jeene ke liye sansarik majbooriyan kah ligiye..... kai baar sulana padta hai ise......"Zindgi kya hai janney ke liye.......Zinda rahna bahut zaroori hai....Aaj tak koi raha to nahi

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  8. कब जागेगा वो ?
    जो कहता है,
    बरसो से नहीं सो पाया हूँ....


    अक्सर सोते हुवे जागते रहते हैं लोग ......... ज़र जागते हुवे सोने का बहाना करते हैं ............ शायद ऐसे लिगों को उठना बहुत मुश्किल होता है .........
    आपकी रचना गहरे एहसास जगाती हुए किसी अलग दिशा में खींच कर ले जाती है ..........

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  9. अच्छी रचना की ख़ासियत ये होती है की उसे पढ़कर दिल खुश हो जाता है और मैं तो चेहरे पर मुस्कुराहट भी लिए जा रहा हूँ.

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  10. कितनी सहजता से सोते इंसान को जगाने का (असंभव )कार्य किया है .आज के सन्दर्भ में बिलकुल सही. बधाई

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  11. bahut hi sundar aur sehej shadon ke prayog kiya hai aapne...badi hi sarlta se bahut kuch keh gai aapki kavita..
    sach mein sarahniye hai

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  12. ਰਾਜ ਜੀ ! ਖੂਬਸੂਰਤ
    ਬਹੁਤ ਦੇਰ ਬਾਅਦ ਆਇਆ ਹਾਂ ਤੁਹਾਡੇ ਬਲੌਗ ਤੇ. ਇੰਨਾ ਤਿੱਖਾ ਮੋੜ ਤੁਹਾਡੀ ਨਜ਼ਮ ਵਿੱਚ ? ਅਚਾਨਕ ਇਹ ਕਿਵੇਂ ਹੋਇਆ ? ਪਰ ਬੇਹੱਦ ਖੂਬਸੂਰਤ ਲੱਗਾ ਇਹ ਮੋੜ .

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  13. कविता सदाबहार है
    मेरे पसंदीदा रेलवे क्रीपर की तरह, पता नहीं आपको वे फूल लुभाते हैं या नहीं. मुझे बचपन से उन्हीं फूलों ने लुभाया है वे टूटने के बाद भी देर तक नहीं मुरझाते, सालों बाद भी किताब से निकालें तो मुस्कुराते मिलते हैं.

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  14. खुल नहीं पा रहा था ड्रीम्ज़ उनलीमितेड. कई दिनों से ....आज तीन नयी कवितायें पढ़ी ... मुझको अपने करीब खींच लाइ हैं आपकी रचनाएं..

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