रविवार, 24 जनवरी 2010

सब खुश है अब..
सुबह सुबह,
बालकोनी में,
अकेले बैठ के,
रोज़ जैसी खबरों वाली,
अखबार के पन्ने.
चाय के घूँट और गुड डे.
दूर से सुनायी देती है,
किसी चर्च से हर इक घंटे बाद,
सुनायी देने वाली आवाज़.
नियमत वक़्त पे,
इक हाथ गाड़ी पे बैठा,
बिना टांगो वाला.
और इक बिना आँखों वाला,
गुज़र गये गली के इक छोर से दूजे तक,
चिल्लाते हुए या गाते हुए..
''दाता कोई आयेगा..
भला हो जायेगा.. ''
रात अधूरी सी नींद थी,
जाने क्यूँ.
गहने चुभते रहे रात भर शायद.
हर करवट तुम्ही नज़र आते थे..
पर मैं खुश हूँ और तुम भी तो..
अकेलापन क्या होता है,
सब जानते है .
पर कैसा होता है तुम जानते हो..
भीड़ के निरर्थक शोर में,
दबा देते हो आवाज़े खुद की,
पर तुम खुश हो..
चुन्नू भी खुश है,
तुम उसकी नज़र में सुपर मैन हो,
साईकल चलानी तुम्हारे बिना सीख ली उसने.
तुम लौटोगे तोहफों से दोनों हाथ भरके जब.
बढ चुके होंगे मेरे बदन के गहने 
और तुम्हारी आँखों के सपने भी..

उम्र के उस पडाव पे करेंगे हम 


आत्म मंथन 


आओ न 
अभी के लिए ढूंढ़ लेते है ,
कुछ पेचीदा सवालों के जवाब
अकड़ बकड़.....




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सब तरफ पत्थर ही पत्थर ,
सफेद संगमरमर.
महंगी तस्वीरे,
दिलकश दीवारे,
कोनो में जगमगाती ,
रंगीन मोमबत्तिया.
फूल गुलदानों में,
पंछी पिंजरों में,
खुशबू हरसू,
संदल,गुलाब,
महकती अगरबत्तिया.
सपने पड़े है ओंधे मुंह.
जिस्मो के तहखाने में,
न धूप के निशान,
न आये बारिश नज़र.
हवा भी कही दूर से ही,
जाये गुज़र.
सजा हुआ है घर..


..मगर वो,
अनजान शिल्पकार हाथो का बना,
फरिश्तो की छांह वाला,
सितारों के आस्मां वाला.
मौसमी,रंगीन फूलो से सजा,
मिट्टी की खुश्बू से सना घर,
जाने खो गया अब कहाँ..


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उसे पता था,
किसपे कौन सा रंग करना है,
या किसपे कौन सा रंग चडेगा.


वो उठाता जाता
इक इक टुकड़ा .
गरम रंग भरे पानी में डालता,
और सुखा देता.


अपनी मर्ज़ी से परे,
नये रंगों से सजे.
रंग बिरंगे टुकड़े.


रंगों का कोई अंत नहीं
और इंसानों का भी.


रंगसाज़ ने रंगी दुनिया सारी.


 

12 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ अकड़ बकड़ मेरे पास भी है...

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  2. हर बार की तरह ही बहुत अच्छा. जीवन के सच और कुछ मन के भीतर दबे सवाल उजागर करती रचना
    बधाई स्वीकारें

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  3. दास्तान लिख दी आपने जीवन की ........ रचना का प्रवाह बाँध कर रखता है अंत तक ......... लाजवाब ......

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  4. बहुत करीब ले गई यह रचनाएं .. खुद को भी बालकनी और उस घर में अक्कड़-बक्कड़ खेलते पाया ..

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  5. मैं तो पिछली कविता पर ही कुछ कहने आया था...हालाँकि दो बार पहले भी पढ़कर लौट चूका था... देखा तो एक और विराजमान है... इस पर बाद में... पहले, पहले की तारीफ

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  6. अभी के लिए ढूंढ़ लेते है ,
    कुछ पेचीदा सवालों के जवाब
    अकड़ बकड़.....

    Kuch sawalon ke jawab bane hi nahi sayad.....ya fir bejawab rahe to accha hai.....Rang saaj to gazab hai ji.....khud bhi hairan ham bhi hairaan

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  7. वाह बहुत ही सुन्दर रचना ! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!

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  8. रंगसाज़ ने रंगी दुनिया सारी.
    khoobsurat

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  9. बहुत ही सुंदर कविता कही। बधाई।

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  10. गहने चुभते रहे रात भर शायद

    हाँ कभी अपने प्रिय, गहनों से हो जाया करते हैं सुंदर और निरर्थक ...

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...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती.