रविवार, 27 जून 2010

पढ़ के फेंकी गयी
अखबार की तरह
इधर उधर उड़ती रहती है..

लगातार,बिना थके
घुमते जाते बैलो के गलें में बंधी
छोटी छोटी घंटियो की आवाज़ गुंजाती

पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
या फिर
खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.

दूर जा के
फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी

लय में चलती चक्की पर
थिरकते पिसते गेहूं सी

फासलों की दीवार फांद
उम्मीद की टहनी पे
आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...

*    *     *    *
*    *     *    *

ज़िन्दगी के रंगमंच पर
काली रात का पर्दा गिरता है
उम्र का इक और उजला दिन
किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
उदास सी कर देती है
आँखों के कोनों को
गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...

25 टिप्‍पणियां:

  1. एक अलसाई हुई सी याद, जिसका कोई बिम्ब, कोई उपमा नहीं....
    लेकिन उन उबासियों से निकलने वाली हर अंगड़ाई से एक कविता गिरती है.
    तुम्हीं से गिरे, अब तुम उठाओ ना...

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  2. ज़िन्दगी के रंगमंच पर
    काली रात का पर्दा गिरता है...

    और कहीं नेपथ्य से आवाज़ आती है...
    'very well done !! let's have a break."
    ये रात का अंतराल...
    और उसमें चलने absurd plays.
    sach ....
    ...kuch sapne wakai sone नहीं dete...

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  3. बहुत बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति! बधाई.

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  4. Hello Dimple,

    The composition is very well written.
    All comparisons are done in a fantastic way...

    "पढ़ के फेंकी गयी
    अखबार की तरह
    इधर उधर उड़ती रहती है.."

    After reading these 3 lines.. I just felt... wow!! what an imagination this girl has ;-)

    Regards,
    Dimple

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  5. किसी जगह ये पढ़ा था ..किसी विमल ने लिखा है ...... इसके चंद टुकड़े बहुत अच्छे है ....खास तौर से इसकी शुरुआत ...तुम्हे पढ़ा जाने क्यूं बांटने का मन किया .....


    अजब पागल सी लड़की है,
    मुझे हर ख़त में लिखती है,
    मुझे तुम याद करते हो?
    तुम्हे मैं याद आती हूँ?
    मेरी बातें सताती हैं?
    मेरी नींदें जगाती हैं?
    मेरी आँखें रुलाती हैं?

    दिसंबर की सुनहरी धूप में अब भी टहलते हो?
    किसी खामोश रस्ते से,
    कोई आवाज़ आती है?
    ठिठुरती सर्द रातों में,
    तुम अब भी छत पे जाते हो?
    फलक के सब सितारों को,
    मेरी बातें सुनाते हो?

    किताबों से तुम्हारे इश्क में कोई कमी आई?
    या मेरी याद की शिद्दत से आँखों में नमी आई?

    अजब पागल सी लड़की है,
    मुझे हर ख़त में लिखती है.....

    जवाबन उसको लिखता हूँ,

    मेरी मसरूफियत देखो,
    सुबह से शाम ऑफिस में,
    चिराग-ए-उम्र जलता है,
    फिर उसके बाद दुनिया की,
    कईं मजबूरियां पावों में,
    बेड़ी डाल रखती है,
    मुझे बेफ़िक्र चाहत से,
    भरे सपने नहीं दिखते,
    टहलने, जागने, रोने की,
    मोहलत ही नहीं मिलती,
    सितारों से मिले अरसा हुआ,
    नाराज़ हों शायद,
    किताबों से शुगफ मेरा,
    अभी वैसे ही कायम है,
    फर्क इतना पड़ा है बस,
    उन्हें अरसे में पढ़ता हूँ,
    तुम्हे किसने कहा पगली,
    तुम्हे मैं याद करता हूँ......

    के मैं खुद को भुलाने की,
    मुसलसल जुस्तजू में हूँ,
    मगर ये जुस्तजू मेरी,
    बहुत नाकाम रहती है,
    मेरे दिन रात में अब भी,
    तुम्हारी शाम रहती है,
    मेरे लफ़्ज़ों की हर माला,
    तुम्हारे नाम रहती है,
    तुम्हे किसने कहा पगली,
    तुम्हे मैं याद करता हूँ,

    पुरानी बात है जो लोग अक्सर गुनगुनाते हैं,
    उन्हें हम याद करते हैं जिन्हें हम भूल जाते हैं,

    अजब पागल सी लड़की हो,
    मेरी मसरूफियत देखो,
    तुम्हे दिल से भुलाऊं तो, तुम्हारी याद आये ना,
    तुम्हे दिल से भुलाने की, मुझे फुरसत नहीं मिलती,

    और इस मसरूफ जीवन में,
    तुम्हारे ख़त का इक जुमला,
    "तुम्हे मैं याद आती हूँ?"
    मेरी चाहत की शिद्दत में, कमी होने नहीं देता,
    बहुत रातें जगाता है, मुझे सोने नहीं देता,
    सो अगली बार अपने ख़त में,
    ये जुमला नहीं लिखना,

    अजब पागल सी लड़की है,
    मुझे फिर भी ये लिखती है,
    मुझे तुम याद करते हो?
    तुम्हे मैं याद आती हूँ?

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  6. फासलों की दीवार फांद
    उम्मीद की टहनी पे
    आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...

    वाह क्या याद है .लाजवाब !!!!!!

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  7. मैं चिटठा जगत की दुनिया में नया हूँ. मेरे द्वारा भी एक छोटा सा प्रयास किया गया है. मेरी रचनाओ पर भी आप की समालोचनात्मक टिप्पणिया चाहूँगा. एवं यह भी जानना चाहूँगा की किस प्रकार मैं भी अपने चिट्ठे को लोगो तक पंहुचा सकता हूँ. आपकी सभी की मदद एवं टिप्पणिओं की आशा में आपका अभिनव पाण्डेय
    यह रहा मेरा चिटठा:-
    http://sunhariyaadein.blogspot.com/

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  8. बहुत ही खूबसूरत लिखा है, बधाई !

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  9. संजो कर रखें इन यादों को, जिन्दगी के बाद भी जाती हैं ये यादें...

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  10. उदास सी कर देती है
    आँखों के कोनों को
    गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...

    panila panila sa kuch mahsoos sa hua...bahut hi badhiya likha aapne, aabhar

    जवाब देंहटाएं
  11. ज़िन्दगी के रंगमंच पर
    काली रात का पर्दा गिरता है
    उम्र का इक और उजला दिन
    किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
    उदास सी कर देती है
    आँखों के कोनों को
    गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...
    ......................
    ..........................
    ...........................
    ............................

    जवाब देंहटाएं
  12. Dr. Anurag ka comment Pagli ladki bahut achcha laga...Dr. Kumar Vishwas ki rachna pagli ladki yaad aa gai....ab aap par aate hain.


    ज़िन्दगी के रंगमंच पर
    काली रात का पर्दा गिरता है
    उम्र का इक और उजला दिन
    किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
    उदास सी कर देती है
    आँखों के कोनों को
    गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...

    To duniya ek rangmanch hi hai
    haan khaas kalakaar ki adaygi zindgi ka turn decide karti hai....Hamesha ki tarah khoobsoorat

    जवाब देंहटाएं
  13. sunder abhivyakti.
    kahin padha tha...
    kaun saa natak bhala khelen batao
    paatra to milte magar abhinay nahin hai

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  14. फासलों की दीवार फांद
    उम्मीद की टहनी पे
    आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...
    bahut sunder....kahi pada tha-
    band jharokhon se bhi,
    darakhto ke beech,
    hawa si bah,
    rangeen kar deti hai mera ghar
    tumhari.

    tum nhi, na sahi,
    hame jeene ka sahara h tumhari yaad.

    जवाब देंहटाएं
  15. Awesome! Eqaully awesome was Dr. Anurag's response. Well done and Congratulations to you both for such beautiful expressions.

    जवाब देंहटाएं
  16. काफ़ी समय से काम की व्यस्तता के कारण रीडर ही नही ओपेन कर पा रहा था.. फ़िर एक दिन देखा तो तुम्हारी सारी फ़ीड रिफ़्रेश हो गयी थी.. नया टेम्प्लेट अच्छा है और कविता तो क्या ही कहू :)

    "पढ़ के फेंकी गयी
    अखबार की तरह
    इधर उधर उड़ती रहती है.."

    "दूर जा के
    फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी"

    उसकी यादो का एक जखीरा.. यादो पर कभी पढी हुयी दो लाईने याद आ गयी..

    "काश यादे रेत होती,
    मुटठी से निकल जाती, मै पैरो से उडा देता॥"

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  17. फासलों की दीवार फांद
    उम्मीद की टहनी पे
    आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...

    धीरे धीरे ये अलसाई याद उतार जाती है जहाँ पर ... और आपकी रचना भी ... बहुत कमाल लिखा है ...

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  18. वाह डिम्पल, अक्सर ऐसा होता है कि कविता जहाँ से अपनी ले पकड़ता है वहीँ वो ख़तम हो जाती है... यहाँ कुछ ऐसा ही लगा...
    आँखों के कोनों को
    गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी..

    यह तो याद कर लिया समझो

    हालांकि, इस बीच यह लाइन बहुत पसंद आई.

    पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
    या फिर
    खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.

    शुक्रिया.

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  19. डॉ. अनुराग कि बात बहुत अच्छी लगी.

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  20. उदास सी कर देती है
    आँखों के कोनों को
    गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी..
    .....these lines r able to remember those who r "vry special " to someone...
    ..................thanx.

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