गुरुवार, 11 मार्च 2010

सरजू

मैंने,
चाहे कोई भी कक्षा पाक कला की नहीं लगाई .
पर मैं,
रोटिया सेंकती ,मीठा पकाती.
मैं लीपती चूल्हा,घर बुहारती.
यूँ तो,
मैंने चित्रकारी भी नहीं सीखी कभी.
पर मैं दहलीज़ के अंदर रंगोली बनाती.
कच्ची दीवारों पे फूल पत्ते तराशती.
भले ही,
अर्जुन की तरह ध्वनि सुनकर तीर चलाना नहीं आता.
पर बिना देखे ही बस सुन के आवाज़े,समझ जाती.
अनजानो से और अपनों से भी घुंघट निकालती.
जो नाम,मैं नहीं रख पाई,
उन नामो से बच्चो को पुकारती.
दुनिया से मेरा बस इतना वास्ता,
मैं टीवी रिमोट का लाल बटन,
और पति के सेल फोन का हरा बटन जानती..

28 टिप्‍पणियां:

  1. Hello Dimple,

    I am proud of you and your concepts and your compositions!! It is an honour that we share the same name ;-)
    What a class this one is...!! Mind-blowing yaar!
    Your thought process is really "kaabil-e-tareef" ;-)

    And, thanks for your sweet compliment :) that you wrote!!

    Regards,
    Dimple

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  2. बहुत अच्छी सरल-सी कविता,एक सीधी-सादी-सी स्त्री भी अनगिनत चीज़ों में पारंगत होती है.........."
    amitraghat.blogspot.com

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  3. बहुत ही गहरी और दिल में उतार जाने वाली रचना .... सच हैं कुछ बातें मन अपने आप सीख लेता है .. किसी के सिखाने की ज़रूरत नही होती ......

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  4. बहुत ही बढ़िया रचना लगी , सुन्दर शब्दो के साथ गहरे भाव दिखे ।

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  5. वह सीता है ,

    पर
    उसे आग मे जलना होगा!

    वह कुन्दन है
    पर
    उसे आग मे चढना होगा!

    वह औरत है
    इसलिये
    उसे ख्वाहिशो की आहुति
    देनी होगी!

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  6. ek aam bharteey mahila ki jo tasveer kheenchi hai aapne ....soch rahi hai ki agar 33% reservation mila bhi to kya wo intak pahuch payega.....ya fir mantriyon ya fir udhogpatiyon ke ghar ki mahilaon ka bhala hoga.....

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  7. गहरे दर्द को सुन्दर शब्दों से कह दिया आपने।

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  8. यूँ तो,
    मैंने चित्रकारी भी नहीं सीखी कभी.
    पर मैं दहलीज़ के अंदर रंगोली बनाती.
    कच्ची दीवारों पे फूल पत्ते तराशती.
    बहुत सुन्दर भाव

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  9. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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  11. बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

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  12. ये हुई न बात...बहुत सुन्दर...

    कविता को यथार्थ में उतरना क्या होता है...या यथार्थ को कविता में उतरना क्या होता है ?
    कविता में आ ही गया...

    पूरी रचना पसंद आई...क्योंकि ये इर्द गिर्द घुमती है, स्त्रियों के सामाजिक जीवन के, और कचोटन भी बहुत है।

    रचना की दृष्टि से, संकेतात्मक भाषा का प्रयोग अच्छा लगा, प्रत्यय पसंद आए॥

    बहुत खूब..डिम्पल

    निशांत कौशिक

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  13. स्त्री होने का साहस भी केवल स्त्री में ही है... किसी पुरुष में स्त्री हो जाने कि क्षमता भी तो नहीं ही हो सकती है. .. कुछ भी ना कहना.... और सब कुछ कह भी देना.. कुछ भी ना चाहना .... और सब कुछ करते रहना.. बहुत से आयाम हैं स्त्री-जीवन के.... अच्छे और सरल शब्दों में स्त्री-मन और जीवन का चित्रण किया है आपने.. प्रशंसनीय,,
    कुछ इन्हीं भावनाओं को लेकर कवियित्री अनामिका की कविता 'बेजगह' और 'जुएँ' भी है.. आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं..

    http://www.nirmansamvad.com/News/06-Mar-2010/Page12.aspx

    आपकी अप्रकाशित रचनायें भी आमंत्रित हैं,,,, हम इन्हें सम्मानजनक स्थान देंगे..

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  14. Being a woman and with heaps of academic qualifications, I still can identify myself with this beautiful character of your poem.I find the powerlessness of woman in the social hiearchy universal and appalling( These words are coming from a woman living in a developed country). you, on the other hand can find sweet descriptions of her talents in a manner which is quite reassuring and comforting.Thanks and well done!

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  15. बहुत सीधी सरल भाषा. एक नारी मन व उसकी व्यथा,साथ ही उसका सच्चा मन और उसमे भी अपने आपको सुखी, सौभाग्यशाली समझना ही उसकी मज़बूरी. सब कुछ उभर कर सामने आया है

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  17. bahu sunder :)

    http://sparkledaroma.blogspot.com/
    http://liberalflorence.blogspot.com/

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  18. सपखने की जरुरत ही क्या है....बॉर्न टैलेंट है आपमें मेरी तरह.....पर एक गीत याद आ गया....
    सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी....यह नहीं सीख पाए क्योंकी सीख के नहीं आए थे न इस दुनिया में...

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  19. क्या बात है ,नारी जीवन की सीमाओं,व्यथाओं को उकेरती एक मार्मिक रचना ,सचमुच बहुत पास से देखती हो आप जीवन को ,अद्भुत प्रयास के लिए शुभकामनायें ,
    सादर,
    डॉ.भूपेन्द्र

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