सूना-सूना सा आकाश
बसा है मकानों की छतों पे अभी..
परदें हटाओ गर
तो खिड़कियों पे..
दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..
लिपटी पड़ी है उदासी सी
सीखचों पे भी..
मगर कभी गुटका करेंगे
कांपते कबूतर रोशनदानों में..
सर्द कागज़ पर बर्फ से लफ्ज़
पिघल निकलेंगे..
हरी हवा उगने लगेगी
पतझड़ी समय में..
डार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
नज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..
गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..
जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..
बसा है मकानों की छतों पे अभी..
परदें हटाओ गर
तो खिड़कियों पे..
दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..
लिपटी पड़ी है उदासी सी
सीखचों पे भी..
मगर कभी गुटका करेंगे
कांपते कबूतर रोशनदानों में..
सर्द कागज़ पर बर्फ से लफ्ज़
पिघल निकलेंगे..
हरी हवा उगने लगेगी
पतझड़ी समय में..
डार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
नज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..
गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..
जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..
वाह ! डिम्पल जी,
जवाब देंहटाएंइस कविता का तो जवाब नहीं !
विचारों के इतनी गहन अनुभूतियों को सटीक शब्द देना सबके बस की बात नहीं है !
कविता के भाव बड़े ही प्रभाव पूर्ण ढंग से संप्रेषित हो रहे हैं !
आभार!
बसंत बसंत
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता है. शाम से कुछ उदासी थी जो अभी तक ठहरी थी, इस कविता को पढ़ते हुए छिटकने लगी है. एक जोड़ी कबूतर मेरी छत पर भी रहते हैं. और कुदरत के रंगों को इस कविता के जरिये फिर से पढने की कोशिश कर रहा हूँ . अच्छा लग रहा है कि मूड बदल रहा या फिर शायद उदासी को आहिस्ता-आहिस्ता फेड होना ही होता है.
वाह …………भावो का सुन्दर सम्प्रेक्षण्……………बहुत सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंबसंत का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंएकाएक भर जाता है आँखों में पीला रंग ..
जवाब देंहटाएंजमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..
waah....
जवाब देंहटाएंbahut din baad aaj blogjagat mein ghoom raha haoon...
ek achhi kawita mil gayi padhne ke liye...
खुले दरीचों से दिखने लगेगी बसंत - बसंत
जवाब देंहटाएंउदासी भरे दिन कभी तो हटेंगे !
wat a optimistic approach ....onset of basant is welcomed in supbb way :)
जवाब देंहटाएंhmmmmm
जवाब देंहटाएंवाह!सुन्दर रचना,
जवाब देंहटाएं"मेरे ख्याबों को खिल के रंगी कर गया,
सुर्ख फ़ूल था फ़िज़ा बसंती कर गया!"
परदें हटाओ गर
जवाब देंहटाएंतो खिड़कियों पे..
दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..
अच्छे बिम्ब खींचे हैं आपने
basant basant
जवाब देंहटाएंagar kuch achh lagta hai to andar se aawaj aati hai wah
aur kisi ko aise hi bolna hota hai to bolte hai achha hai....
par aaj fir se aawaj aai wah wah
बहुत सुन्दर कविता है|
जवाब देंहटाएंliked your poem and like the reply on by blog too :P
जवाब देंहटाएंडार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
जवाब देंहटाएंनज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..
गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..
जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..
लाजवाब कविता. बसंत का सम्मोहन है ही ऐसा. बधाई सुंदर लेखन के लिए.
जमा-रुका सा कुछ मन में
जवाब देंहटाएंदस्तक देगा..
खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..
सुन्दर...
मौसम के साथ मन में भी फूलती बसंत....!!!
behad khoobsurat, wahh!! bohot bohot hi acchi nazm hai dimple, just amazing!
जवाब देंहटाएंlovely!
जवाब देंहटाएंपहली बार आई पर आना अच्छा लगा बहुत खुबसूरत एहसासों से भरी खुबसूरत रचना |
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दोस्त |
उम्मीद की दस्तक. है.....
जवाब देंहटाएंअहसास की चादर में लिपटी खूबसूरत रचना.....
जवाब देंहटाएंbehad suandar abhivaktee......behad bhavpoorna
जवाब देंहटाएंbahut sunder likha haa apne.....mazza aa gaya padh kar
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