शनिवार, 1 मई 2010

may day

वो आता,
बिना बोले जुट जाता,
चुपचाप काम में..
कांटता,छांटता,
तराशता,
लकड़ी को..
आकार देता,
साकार करता..

अनदेखा करता,
हाथ में चुभी फाँस को..

साल दर साल,
कई घर बनाता,
किसी की याद में,
भविष्य की कल्पना में,
या अतीत के किसी सपने का,
दबी दबी ज़ुबां में,
इक आध गीत गुनगुनाता..

अपने बनाये शाहकार को,
देखता सर उठा के..
फिर नया घर बनाने में,
लग जाता,सर झुका के..

उसका नाम?
नहीं..
उसका नाम तो कोई भी नहीं जानता..

12 टिप्‍पणियां:

  1. in anaam shramik devtaon ko sadar naman...bahut sundar prastuti...

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  2. "मज़दूर पर लिखी गई अहसास से भरी कविता.कितना अच्छा होता कि हर बनने वाले मकान
    के किसी कोने में ही सही उस मज़दूर का नाम गुदा हुआ होता ...मज़दूर इसी में खुश हो जाता.."

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  3. समस्या तो यह है की यह सर्वहारा समाज मौके पर ही याद किया जाता है. यह आज अखबार के अखबार की तरह है जो आज बिलकुल ताज़ा तो कल उतना ही बासी. अभी कल की इसकी एहमियत ख़त्म होने वाली है... बहरहाल कविता है, शब्द हैं, दर्द है, एहसास है तो बढ़िया अभिव्यक्ति... बधाई. (मूड थोडा ख़राब है माफ़ करना)

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  4. अनदेखा करता,
    हाथ में चुभी फाँस को..

    Majdoron ke dard mein dubi rachna.......
    Samvedanshee aur saarthak prasutit ke liye dhanyavaad.

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  5. Nice poem!

    Sahaab, Biwi aur Gulam is also one of my favourite. :)

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  6. Naam nahi jaante ..kyonki janane ki zaroorat hi nahi samajhte...Pyaar ke do meethe bolon ka haq to use bhi hain ..Lekin ?

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  7. अंतिम पंक्तियाँ विशेष लगीं..
    बढ़िया कविता बधाई!

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  8. सच कहा आपने, यही तो होता है, सुन्दर रचना !

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  9. waah kitni behtareen rachna...
    padhkar dil se waah nikli...
    bahut khub,........
    regards
    http://i555.blogspot.com/

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  10. Jaise... Tajmahal ko banaaya mazdooro ne... aur naam Shah-Jahan ka hua!
    Kuch logo ki kadar shaayad rabb hi jaanta hai!

    "उसका नाम?
    नहीं..
    उसका नाम तो कोई भी नहीं जानता.."

    Lovely!

    Regards,
    Dimple

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