गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

सोचती हूँ..

अलंकृत रहूँ,
या फिर,
स्वछन्द बनूँ?

शिखर बिंदु,
या फिर,
 नुक्ता भर?

कल्पना के पंख लगा लूँ,
या फिर,
 शिल्प के  जौहर में बंधू?

बना दूँ कोई जादूई फ़ज़ा,
या फिर,
अपनी उड़ान में मस्त रहूँ?

कैदी पंछी के तरह बहर में रहूँ,
या फिर,
मुक्त उडू?

काएदे में रहूँ,
नज़ाकत से बैठूं,उठूँ..
सजुं,संवरू..

नये तेवर,नये स्वर,नये अंदाज़ दिखौं दूँ..
या फिर,
हदबन्दियो में रह के,
काव्य कला के नियम निभा दूँ..



मुझसे भी तो कोई पूछे के  मैं क्या चाहूँ...

27 टिप्‍पणियां:

  1. मै पूछती हूँ की, डिम्पल जी आप क्या चाहती है ? बहुत सुंदर लिखा आपने ,मन की जो कशमकश है उसे आपने शब्द दिये हैं ...बधाई .

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  2. स्वछन्द
    कल्पना के पंख
    अपनी उड़ान
    मुक्त
    नये स्वर
    achche hain shabd maynon se bhare-pure

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  3. सुबह- सुबह आग्रह पूर्ण कविता... सुन्दर ख्याल

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  4. वाह!
    सदियों बाद आज भी अपनी चाहत पूछे जाने की चाहत भर का दर्द...

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  5. ये उलझन ताउम्र बनी रहेगी....एक यक्ष प्रशन सी माफिक........

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  6. are vaah....kyaa baat hai....haan sach ab apne andaaz dikha hi do khud ko heere-moti se nahin balki shabdon ke jevaron se sazaa do.....!!

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  7. गुलजार साब की वो नज्म याद हो आयी..

    कितनी गिरहें खोली हैं मैंने...कितनी गिरहें अब बाकी है...
    पाँव में पायल, बाहों में कंगन
    गले में हंसुली
    कमरबंद, छल्ले और बिछुए
    नाक-कान छिदवायें गए हैं
    और जेवर-जेवर कहते-कहते
    रीति-रिवाज कि रस्सियों से मैं जकड़ी गयी
    ...उफ़ कितनी तरह मैं पकड़ी गयी...

    एक जायज सवाल उठाती हुई कविता...

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. इस पशोपेश में तो हम सभी रहते हैं। कविता के माध्यम से इन्हें व्यक्त करने का शुक्रिया।
    हाँ एक बात..चूंकि पूरी कविता में सारे प्रश्न खुद से ही किए जा रहे हैं उस हिसाब से अंतिम पंक्ति उतनी प्रभावित नहीं करती।

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  10. Dimple m readng u fr d frst time...bt i mst tell u .....u r simply superb.....mere paas kehne k liye shabd nahi hain.....
    now m a fan of ur "kalam"....

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  11. सुन्दर रचना, लेकिन मनीष जी ने एकदम सही कहा है, अंतिम पंक्ति को बदलें !

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  12. वैसे अजीब सी बात है की कई बार हमें खुद ही नियमों में बंधना अच्छा लगता है.
    तो आप अपने से पूछो कि पिताजी की डांट पसंद है या आज़ादी?

    दर्पण की बात को आगे बढ़ाते हुए साहिर की नज्म से

    "तुममें हिम्मत है की दुनिया से बगावत कर लो,
    वरना माँ-बाप जहाँ कहते है शादी कर लो"

    दरअसल, कुछ पंची भटक कर घर आते हैं... आप उनको समय से घर आने मत कहिये... क्योंकि जब अपने मन से आयेंगे तो ज्यादा वफादार होंगे यह सब बातें आपकी कविता के मुताल्लिक कह रहा हूँ... हदबंदी उनको करने दीजिये आप बस रचना का आनंद लें... बहुत अच्छी बन पड़ी है कविता ... आपकी अब तक की सबसे बेहतरीन और स्पष्ट... शुक्रिया...

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  13. :) I am happy :) once again to read this one!
    U know your words are getting better and better :) Though pehle bhi bahut achhe hote the but i think maturity level badne se aur achhe-2 words aa rahey hai :)

    Regards,
    Dimple

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  14. कविता एक नवोदित कवि की दुविधा को स्वर देती है..और एकालाप के जरिये कला-पक्ष और भाव-पक्ष के बीच की स्वाभाविक रस्साकशी को बयाँ करती है..मुझे दोनो ही अपना महत्वपूर्ण लगती हैं..छंद-मीटर की बंदिश से मुक्त कविता और लय आदि के व्याकरण पर चलने वाली कविता दोनॊं के अपने वितान है...अपने-अपने खुसूसियत है..जहाँ अकेले पक्षी की अपनी मुक्त उड़ान से निर्बाध आकाश नाप लेने की कोशिश काबिले-तारीफ़ लगती है..वहीँ संध्याकाश मे घर को जाते पक्षी समूह की पाँत की लयबद्ध (बाबहर)समवेत उड़ान की भी अपनी खूबसूरती है..Just try to do your best the way you can..and then let the Pundits decide its nomenclature !
    ..ग़ालिबन
    ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र,
    काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

    कुल मिला कर सुंदर कविता!!

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  15. ...और राजेंद्र साहब की भगत सिंह वाली कविता का पूरा संस्करण शेयर करने के लिये आपका आभार!

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  16. Hey Dimple

    Itne sare thoughts aur unhe sabdo mein utarne ke liye shabd kahan se aate hai tumhre paas

    :-)
    bahut achha laga pad kar

    -Shruti

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  17. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी

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  18. बहुत सुन्दर कविता...हम भी बड़ी होकर ऐसी ही कविता लिखेंगे..


    -----------------------------------
    'पाखी की दुनिया' में जरुर देखें-'पाखी की हैवलॉक द्वीप यात्रा' और हाँ आपके कमेंट के बिना तो मेरी यात्रा अधूरी ही कही जाएगी !!

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  19. :) मै तो रोज़ ऐसे खयालात से लडता हू.. वो प्रवीण पान्डे जी कहते है न कि निर्णय-निर्णय खेलती रहिये और हर निर्णय को जीती रहिये.. वैसे ही करिये वही जो आपका दिल करे जिससे आप बाद मे अपने आप को ही दोष दे सकेन :D

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  20. मैं डरता हूँ

    मैं डरता हूँ,
    कविता से....
    शायद रूठ न जाए,
    मेरी कोई हरकतों से.
    अब तो इस डर ने,
    डरने की सीमा पार कर गई है.
    रात भर जागा रहता हूँ
    ऐसा न हो की,
    कविता...
    रूठ कर चली जाए,
    हमारे सोने के बाद.
    कभी पलक झपकती भी
    तो पुकारता हूँ,
    कविता-कविता......
    कई बार तो पूछ बैठा हूँ,
    अपनी माँ से,
    चली तो नहीं गई
    कविता...?
    कविता की डर ने
    जुदा कर दिया हमें...
    गीता से रामायण को
    अब हाथ भी नहीं लगाता,
    शायद..
    नहीं चाहती कविता
    बातें करूँ मैं,
    किसी और से.
    या फिर,
    मेरी मुलाक़ात हो,
    किसी और के साथ.
    वह तो चाहती है
    अपना बनाना
    मुझे......
    सिर्फ अपनाना,
    कविता का सागर.

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  21. डिम्पल जी. मैं क्षमा प्रार्थी हूँ कि यहाँ आने में थोड़ी देर लगा दी. हाँ, ख़ुशी इस बात कि हैं कि मैं रास्ता भटका नहीं :)
    आपकी इस कृति को पढ़ के ऐसा लगता हैं जैसे ये मेरे मन की कशमकश का सदृश्य वर्णन हैं.

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