मंगलवार, 24 नवंबर 2009

बड़ा गरूर था उसे...
प्यार पे अपने....
ज़ी कहा पाउंगी..
बिछड़ के....
....नीर से...
...मर ही जाउंगी...
कहती थी अक्सर....
आज तड़प तड़प के,
किनारे पे दम तोडा उसने....
इक आस सी ...खुली आँखों में...
अब भी थी बाकी...
किसी अधूरे ख्वाब के जैसी...
समन्दर होता तो,
लहर ले लेती आगोश में उसको...
वो दरिया था...
...मजबूर....
अपने ही किनारों में बंधा.......
वो दम तोडती रही....
वो बहता रहा......




**********************************************




थोडा सा ही तो पढ़ा था उसे.....
पर कई बार....
....बहुत ध्यान से.....
कही कुछ छूट न जाये.....
फिर भी जितनी बार पढ़ा....
नये अर्थ मिले....
जैसे आईने में अक्सर...
बदल जाते है चेहरे....
वो इंसान था
मगर....
फलसफे जैसा..


*******************

न जाने कैसे...

.....अचानक ...
ज़िन्दगी का इक सिरा ...
..हाथ में आ गया...

.....सोचा....

क्यूँ न कुछ हिस्सा फिर से बुन लूँ.......
उधेडा.....
तो उधडती चली गयी...
न जाने क्यूँ....

...मैं बुन नहीं पाई....
जीने जैसे हालात कभी........


27 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. "वो इंसान था
    मगर....
    फलसफे जैसा.."
    क्या क्या quote करूँ एक-एक शब्द मोती जैसा. अति-अति सुंदर.

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  3. फिर भी जितनी बार पढ़ा....
    नये अर्थ मिले....
    जैसे आईने में अक्सर...
    बदल जाते है चेहरे....
    वो इंसान था
    मगर....
    फलसफे जैसा..
    लाजवाब अभिव्यक्ति बधाई

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  4. Dono rachnayen behad sundar hai..."dam todtee aas..." kis qadar dard bhara hai is rachname..aasoonko palkon pe toltee rachna...

    http://shamasansmaran.blogspot.com

    http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

    http://shama-kahanee.blogspot.com

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  5. तीसरी वाली उतनी ही बेहतर लगी जितनी कि दूसरी वाली मे यह पंक्ति

    वो इंसान था
    मगर....
    फलसफे जैसा..

    वैसे आइने को फ़लसफ़े नही आते..!!
    फिर आऊँगा..

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  6. बेहतरीन रचना पूरी की पूरी!

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  7. अहसासों की अभिवयक्ति के अलावा शब्दों में कुछ ऐसा है जो सोचने और मुस्कुराने को मजबूर करता है

    वो दम तोडती रही....
    वो बहता रहा......

    वो इंसान था
    मगर....

    फलसफे जैसा..

    ...मैं बुन नहीं पाई....
    जीने जैसे हालात कभी

    जवाब देंहटाएं
  8. अहसासों की अभिवयक्ति के अलावा शब्दों में कुछ ऐसा है जो सोचने और मुस्कुराने को मजबूर करता है

    वो दम तोडती रही....
    वो बहता रहा......

    वो इंसान था
    मगर....

    फलसफे जैसा..

    ...मैं बुन नहीं पाई....
    जीने जैसे हालात कभी

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत ही ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति..... नायाब मोतियों से सजी कोई माला हो जैसे....बेहतरीन

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  10. सुन्दर अभिव्यक्ति, निराला अंदाज

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  11. .....अचानक ...
    ज़िन्दगी का इक सिरा ...
    ..हाथ में आ गया...
    ..bahut badhiya.....

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  12. OMG !! Its awesome n gr8 !!!
    "वो दम तोडती रही....

    वो बहता रहा......"

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  13. कई ब्लोग्स पर आपके प्रभावी कमेंट्स देखता हुआ आया... आप खुद इतना बढ़िया लिखते हो 'फलसफे जैसा' ....

    वो इंसान था
    मगर....
    फलसफे जैसा..

    ... मुग्ध हुआ दोस्त...

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  14. अब पछता रहा हूँ... हुज़ूर आते आते बहुत देर कर दी...

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  15. बड़ा गरूर था उसे...

    प्यार पे अपने....
    vese jise sachcha pyaar he use us par gurur hona bhi laazmi he/ mujhe aapki rachnaye pasand aati he, yah aap jaanti he/
    वो इंसान था
    मगर....
    फलसफे जैसा..
    apoorvji ne kuchh kahaa he is par, kher..kintu mera drashtikon doosaraa he..insaan ko falsafa banaa dena ..thik lagaa..insaan kissaago to he hi

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  16. न जाने क्यूँ....
    ...मैं बुन नहीं पाई....
    जीने जैसे हालात कभी........

    उम्दा ..... लाजवाब .... आपके अंदाज़ कि रचना है ... दिल कि गराइयों से निकल कर कागज़ पर उतर आयी है जैसे ...

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  17. बढिया ब्लॉग, बढ़िया कलेवर, बढ़िया रुप्यांतरण, बढ़िया रचना...यानि कुल मिला कर
    एकदम बढिया अभिव्यक्ति..
    ..सो बहुत बढिया वाली बधाई ;-)
    बधाई विश्वकर्मा जी को भी...;-)

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  18. "...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती."

    खालिस बकवास होती हैं!!!..यही ना?? ;-)

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  19. डिम्पल ,

    बधाई असली नाम कबूल करने की .......अब आप साधारण नहीं रही ...आपकी प्रतिभा सामने आ रही है साथ ही रचना में परिपक्वता भी ....मेरी तारीफ की जरुरत नहीं जब अपूर्व जी ने इतनी तारीफ कर दी तो ....बहुत ही उम्दा ....!!

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  20. न जाने कैसे...

    .....अचानक ...
    ज़िन्दगी का इक सिरा ...
    ..हाथ में आ गया...

    .....सोचा....

    सबसे बेहतरीन यही लगी...क्यूंकि इसमें एक अजीब सी इमानदारी है .अजीब सी निराशा.....कुछ गुस्सा सा भी....

    क्यूँ न कुछ हिस्सा फिर से बुन लूँ.......
    उधेडा.....
    तो उधडती चली गयी...
    न जाने क्यूँ....

    ...मैं बुन नहीं पाई....
    जीने जैसे हालात कभी........

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  21. samjh nahi pa arahaa kyaa comment karun...?
    kis kavitaa pae karun..!!

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  22. बस इसी में मजा है एक ठीक होते हुए पपड़ी जमे ज़ख्म को थोड़ा सहलाना और फिर डर जाना. सोचता हूँ कि कविताएं अक्सर व्यक्ति के सामाजिक डर और कुछ चीजों को सार्वजनिक रूप से न कह पाने की कमजोरी का परिणाम होती है. इस कविता में हालात और फिर कथित रूप से मुआफ करने का थोथा बड़प्पन है. अगर वह दरिया ही था तो मन की मीन की इन खुली हुई आँखों को पहले भी देखना चाहिए था. कविता में एक हतोत्साहित मन अगले की मजबूरी गिना कर विजयघोष का प्रयास करता है. ऐसा ही होता है, नाकाम मुहब्बतें अक्सर मुहब्बत के मलबे में कोई उम्मीद खोजा करती है. दूसरी और तीसरी कविताएं छोटे छोटे क्षणों का समूह है हमारे आस पास का.
    ये तो सिर्फ कविता के मन के बारे में है तुम्हारे लिए ढेर सारी शुभकामनाएं.

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  23. आपने जो भी किया...कुछ अर्थ होगा उसमें
    पर न इंसान पढ़े जाने की चीज है और न फलसफे...वे तो जिए जाने के लिए hote hain....

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  24. Kishore ji ke vicharon ne atyadhik prabhavit kiya.
    Kavita 'ek pakshiya' hone ke karan Zindagi ki tarah adhoori si lagti hai.

    Aashervaad.
    -Santosh.

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...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती.