रविवार, 9 अक्तूबर 2011

कभी शदाय सा उठता है..
वक़्त को ले थाम..
छुपा ले निशानियाँ थोड़ी..
कहीं कुछ तो बचा ले..
धड़ाम-धड़ाम गिरती सभी सोचें..
..नर्म नाज़ुक रही होंगी...
तलवे जल जाया करते थे कभी..
बोच-बोच पैर  जब चला करते थे...
..अंगार अब नहीं बचे सुर्ख ईटों में..
...और तपिश सूरजों की भी हुई ठंडी..
एक पूरा महीना हुआ करता था बरसातों का..
...कच्ची छत की मिट्टी बहा करती थी परनालों से..
..बस...आज दीवारें ही बच पाएंगी..
छतें पक्की हुई कब की...
अब तो बरसातें भी छोड़ देती है.
कभी -कभी एक घर सूखा..
उन दिनों पलाश भी
कुछ इस तरह झड़ा करता था..
..सारी आंधियां मानो चली हो उसी पर...
वक़्त ने पूर दिए सब के सब कुएं..
..हर नक्शे में ढूंढा उसे..
जिसकी दीवारों से उगा करते थे नन्हें पीपल..
एक पलाश...पुर चुका कुंआं...और एक कच्ची छत..
वक़्त गुजर रहा है...
और...
एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
..आर-पार...


12 टिप्‍पणियां:

  1. अतीत के पन्ने पलटने से उपजी सुंदर कविता. मन के उद्वेगों के सुंदर अभिव्यक्ति. बधाई सुंदर रचना के लिये.

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  2. आर से पार तक की यात्रा ही जीवन का सार है।

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  3. अतीत क्यों व्यतीत नहीं होता ?

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  4. अंगार अब नहीं बचे सुर्ख ईटों में, ...और तपिश सूरजों की भी हुई ठंडी..और अब तो बेचैनी भी सुकून भरी लगती है....

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  5. न धूप की तपिश कम हुई है, न पहाड़ कम टूटे है अबकी बारिश से, लेकिन बस शिद्दतों से गिला है, गिला नहीं है ये के हर चीज़ कि इक उम्र इक मियाद होती है, गिला नहीं है कि पतझड़ ने आना है और उसके बाद 'जाड़े', गिला ये है कि अबकी बहारों में भी फूल कुछ कम से दिखे वो भी सिर्फ हमको....

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  6. ...लगता है अंत में शब्द "आर-पार" जबरिया डाला गया है ताकि कविता का अंत टैबू न लगे.

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  7. और...
    एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
    ..आर-पार...

    जीवन यात्रा का मंजर !

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  8. वक़्त गुजर रहा है...
    और...
    एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
    ..आर-पार...

    और शायद इसी को जीवन कहते हैं...!

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  9. जिसकी दीवारों से उगा करते थे नन्हें पीपल..
    एक पलाश...पुर चुका कुंआं...और एक कच्ची छत..
    वक़्त गुजर रहा है...
    और...
    एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
    ..आर-पार...
    बहुत अच्छे....!!

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...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती.