रविवार, 13 नवंबर 2016

लड़का समंदर कई बार देख चुका है 
लड़की ने पहली बार देखा था 
वह समंदरों के शहर में रहता रहा है 
पहले वो आस्मां था 
फिर समंदर था ,फिर लड़का बना 
दरअसल वह स्मृति बनना चाहता था
जब उसने पहली बार लड़की के पांव चूमे
लड़की ठिठकी
दूसरी बार चूमने पर लड़की मुस्कराई
अब वह समंदर में उतरना चाहती है
लड़का लहरों में लड़की का हाथ पकड़े रहता है
तब भी जब वह बार-बार छूट जाता है
किनारे पर सीपियाँ है, शंख हैं
और मरी हुई मछलियाँ भी
पांवों के निशाँ कोई नहीं हैं
समंदर सारी निशानियाँ मिटा देता है
नावें है ,नाविक है बंधे हुए ज़ाल भी
नाविक नौकाओं से खेलते है
नौकाएं समंदर से
एक रस्सी दोनों के बीच झूलती है
नावें ,नाविक और समंदर तीनों खुश है
लड़का और लड़की भी खुश हैं
लड़की लड़के के चेहरे से नमक चूमना चाहती है
लड़का डूबते हुए समंदर को देखना चाहता है
लड़की समंदर से बाहर निकलती है
लड़का अपने पानी में कैद कर लेता है उसकी परछाई .
...

शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

लड़की वक़्त को कलाई पर बांधती है 
और घर से निकलती है 
उसे बताया गया था बार-बार कि 
धरती गोल है 
पर वो याद नहीं रखती 
वो थोड़ी दूर चलती है
सबकी नज़रों से बचती है
और चिड़िया बन जाती है
विशाल बादल देख चिड़िया बनी लड़की
पहले डरती है
फिर पंख में बांध कर उड़ा देती है
वह रास्ते में कहीं नहीं रूकती
उसे दूर देश जाना है
वह देश हरा है
उसकी हवा नीली है
वह बारिशों का देश है
चिड़िया फिर से लड़की है
उसके पैरों के नीचे ज़मीन है
पर वह ज़मीन से थोड़ा ऊपर चलती है
जब वह चलती है
उसे अपनी ही पायल की आवाज़ सुनाई देती है
उसे नीला रंग ज्यादा नीला लगता है
हरे पत्ते ज्यादा हरे
लड़की की गाड़ी सिग्नल पर रुकती है
लड़का इंतज़ार कर रहा है
दोनों अब साथ-साथ है
और मुस्करा रहे है
लड़का कुछ बोलता है
जिसे लड़की नहीं सुनती
लड़का कुछ कदम आगे चलता है
दरवाज़े में चाबी घुमाता है
इसी बीच लड़की सोच रही है
उसे कौन सा पांव पहले रखना है
लड़का तेजी से अंदर जाता है
लड़की वही पांव पहले रखती है
जो लड़के ने रखा था
कलाई पर बांधा वक़्त लड़की मेज़ पर रखती है
और पांवों से घर नापती है
लड़की को लगता है
सब ठहरा हुआ है
घर में एक भी घड़ी नहीं है
दीवारें बेहरकत हैं उन पर कोई भी तस्वीरें नहीं हैं
वह बेरंग भी नहीं हैं
खिड़कियाँ बंद हैं
घर का कोई आस्मां नहीं है,
न ही घर की कोई ज़मीन है
छत पर कोई जाला नहीं है
मकड़ियों का जंगल यहां नहीं होगा
लड़की चैन की साँस लेती है
दुनिया एक कहानी है
यह बात लड़के ने उसे एक दिन बतायी थी
लोग इस कहानी के पात्र है
लेकिन यह कहानी घर के बाहर है
घर के अंदर लड़का और लड़की हैं
लड़की खाना बनाते हुए कविता सोचती है
लड़का खाते हुए पढ़ लेता है
लड़का गाने सुन रहा है
लड़की अनार छील रही है
दोनों बातों का कोई मेल नहीं है
दोनों खामोश है
पर एक दुसरे को सुन सकते हैं
उन्हें बोलना कम पड़ता है क्यों कि
दोनों एक दुसरे को जानते है
वह दोनों धीरे बोलते है
क्यों जो ऊँची बोलने से फांसले लगते हैं
लड़का किताबे छांट रहा है
लड़की ढ़ेर सी किताबें नहीं पढ़ना चाहती
वो जो पढ़ती है भूल जाती है
लड़का जो उसे सुनाता है
उसे वह कभी नहीं भूलती
लड़के के हाथ में काफ्का की किताब है
लड़की का ध्यान कुकर की सीटी गिनने में है
लड़का कविता पड़ता है किसी युवा देश की
लड़की उछल पड़ती है
यह वही कविता थी
जो लड़के ने बरसों पहले सुनाई थी
और उसे अब भी याद थी ……

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

जब हम एक दूसरे  के अभ्यस्त हो चले थे 
तब उस वक़्त दुनियां में शांति थी 
ज़मीन कहीं नहीं बची थी
 तृप्त आसमान फैला हुआ था 
वो भी मेरी ही तरह तुम्हारे आने की बाट  जोहता 
रात्रि- कार  के अनुभव से शायद 
वो बताता कि  जाने वाले लोट आते हैं 
जो बातें  तुम बता कर जाते वो मुझे फिर-फिर सुनाता 
काश कि  मुझे भी वो सब याद रहता 
जो मैंने सुना नहीं 
तब शायद मैं अनंत काल तक तुम्हें सुन सकती 
हम इतने आदी  हुआ करते थे एक दूसरे  के 
या तो हम रात- रात भर बातें करते 
या फिर दिन भर भी चुप रहते 
और मुट्ठी भर यादों की तह लगाते रहते 
बहुत समय तो नहीं हुआ था 
फिर तुमने ऐसा क्यों कहा 
कि  अब हमें चलना चाहिए  .... 



मंगलवार, 1 नवंबर 2016

मैं २० तारिख को नहीं लौट सकती 
क्योंकि मैं लौट चुकी हूँ 
मगर मैं तो रुकी हुई हूँ 
शायद मैंने लौटने की कोशिश की होगी 
किसी को समझ नहीं आ सकता मेरा न लौटना 
पर तुम जान जाओगे 
गाड़िया हमे दूर ले जाती है पर 
वापिस भी ले आती है 
मैं लिखना नहीं चाहती कुछ भी सिर्फ खतों के जवाब लिखना चाहती हूँ 
खत जो बिखरे हो मेज़ पर 
तुम लिखोगे कैसे मुझे मेरा पता नहीं पता मुझे 
तुम् क्या तेज़- तेज़ चल के नहीं आ सकते मी पास 
हो सकता है तुम्हे पता न हो तुम्हारे घर से बाहर निकलते ही मोड़ पर मेरा घर हो 
तुम क्या सोचते हो 
ज़मीन नीली हो तब भी तुम सुनहिरी धुप से आसमान  को ढक  लेते थे 
दिमाग ओ दिल कुछ देर तक ज़िंदा रहते है 
मर जाने के बाद भी 
उनमे कुछ बचा होता है जाने क्या 
फिर मरना क्या हुआ ?
बात ना करना ?
तो क्या मैं ज़िंदा नहीं हूँ?
पर मुझे पीपल के पेड़ से डर  लगता है 
अँधेरे में उसकी शाखाये काली होती है 
इसका मतलब मैं अकेले नहीं रह सकती 
अकेले में मेरी चुडिया बाते करती हैं 
लाल चुडिया जो तुमने नहीं ले के दी 
लगता है तुम ने बनाई थी कांच पिघला  कर 
लाल सुर्ख  पलाश के फूलो की तरह लाल 
मैंने कहा  था पहना दो मुझसे नहीं पहनी जाती 
पहनी तो जा रही थी
 मुझे कांच पर टूट न जाने का भरोसा नहीं था 
तुमने मना कर दिया 
तुमने कहा एक एक कर के पहन लो 
मैंने पहन ली 
तुम सो गए क्या 
तुम मेरी बात नहीं सुन रहे थे 
तुम को क्या लगा 
मैं हमेशा बोलती रहूंगी 
जब भी तुम आंखे खोल के मेरी तरफ देखोगे 
क्या अगर मैं चुप हो गयी तो 
पर मैं तो चुप हूँ 
कोई नही समझेगा मेरे बात करने में मेरा चुप होना 
तुम समझ जाओगे 

रविवार, 24 अगस्त 2014

मैंने उसके हाथ छुए रेत रेत थे। 
अभी घर बना कर लौटी होगी। 
ऑंखें भीगी मैंने पोंछी। फिर बही। मैंने बहने दी ...
पूछा कहानी सुनाऊँ ? तुम्हें नींद आ जाएगी 
बोली ,"कविता सुनाओ सबसे खतरनाक क्या है ये बताओ" 
मैंने सांसे उसकी हल्के से दबायी। न वो हिली न ही कसमसाई 
मैंने फिर पुछा ,"तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ"
उसने कहा ,"उसकी आवाज़ सुना दो "
मैं जानती थी सूना देती तो उसकी नसों का जमा लहुँ पिघल जाता 
मैंने और जोर से सांसों पर हाथ रखा। उसकी आँखे अब भी उम्मीद से भरी थी
कोई राजकुमार आएगा उसके होंटो को चूम लेगा
उसने पुछा ,"क्या आएगा ?"
बेवकूफ थी बिना किनारों वाली नदी में तैरती रही
वो कभी नहीं बनना चाहती थी कोई कहानी ..

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

सफ़ैदे के ऊँचे शिखरों पर
... डोलते है हवा से ..
झुमके सोने रंगी ..

मौसम पतझड़ का है ..
मगर ..
खेतो में खिली है सरसों .
..
खाली ठूँठ पर बचे हुए है ..
घोंसले ..

बिन पत्तों की नीम पर
...नमोलियां भी ..

हिलते है देर तक झूले ..
उतर जाने के बाद भी ..

हल चल चुके खेत में ..
पिछली फसल के बचे दाने ..
चुनती है नन्ही चिड़िया ..

पंछी आसमान में उड़ता है
परछाई जमीन पर ..

बचा रहता है नये मौसम में पुराने का असर अक्सर     






शनिवार, 4 अगस्त 2012

july 20,2012

मैम को लगता है कि अगर क्लास रूम बंद है तो जरूर टीचर पढ़ा नही रहे होंगे..और तमाम नियमों विनियमों के साथ एक नियम ये भी है कि कलास रूम का दरवाज़ा बंद नहीं होगा..मैम का कहना है "बंद दरवाज़े हमेशा शक पैदा करते है."दूसरी मंजिल की सीढियां खत्म होते ही पहला कमरा मेरा था.मुझे सारा दिन की आवाजों से परेशानी होती और मेरे "बेस्ट बोवायज़" का ध्यान भी हर आहट पर रहता..मैं कभी कभी दरवाज़ा बंद कर लेती और मैम भी मेरी क्लास में आए बिना लौट जाते..

ऎसी ही एक सुबह..अभी मैं बोर्ड पर थौर्ट लिख रही थी "रिवार्ड ऑफ़ गुड वर्क इज मोर वर्क"..दरवाज़े पर हल्की सी थाप पर कनवर ने फटाफट दरवाज़ा खोल दिया...सामने हमारी फ्लोर कोआरडीनेट एक ५-६ साल की लड़की का हाथ थामे खड़ी थी..चेहरे पर चिर- परिचित मुस्कान चिपकाये अंदर आते-आते  वह बोलती गयी...नई लड़की आयी है...एक-दो दिन अपनी कलास में बैठा लो..फिर बता देना इसे कौन सी कलास में बैठाना है..वैसे भी आपकी कलास में कोई लडकी नहीं है...मेरे बेस्ट बोवायज़ पर नजर डालते हुए बोली "आपके बन्दर भी शायद इंसान बन जाये.."..बिना मुझसे कोई जवाब सुने अपनी पंजाबी जूती की चीं-चीं करती हुई वह बाहर चली गयी..

मैं जानती थी कि वह बिना किसी जाँच पड़ताल के किसी होशियार बच्चे को मेरी क्लास में कभी नहीं भेजेंगी...वह जान चुकी होगी कि लड़की कैसी है..किरन से कह कर लैंगुएज लैब से कुर्सी मेज़ मंगवा कर उसे बैठाया..नाम पूछा..नहीं बोली..किताबें पूछी..नहीं बोली...उसका रंग गोरा ज्यादा सफेद सा.. लाल किनारों वाली भूरी ऑंखें..होंट गहरे लाल...उसे नोटबुक पर बोर्ड पर लिखा उतारने को कहा..उससे नहीं हुआ...बुक पकड़ कर उसे अपने पास बुलाया..गले से लगाया..गाल थपथपायी..प्यार किया और पढने को कहा..उसने एक ही लैटर पढ़ा..सी और वो भी ई को..मैं जल्दी से चीजों से उक्ताती नहीं..मैंने कहा कोई बात नहीं काउंटिंग लिखो..उसने एक से बीस तक लिखी..१६,१७,१८,१९,२० उलटे लिखे..मैंने फिर कुछ सवाल पूछे वह नहीं बोली..मैंने कहा..अच्छा ये बताओ जब मम्मा आवाज़ देते है कि इधर आओ तो क्या कहती हो...बस उसी एक वक़्त उसके चेहरे पर हलचल हुई आँखे और लाल हुई पर वह बोली नही..तभी फ़ूड बैल हो गयी..मैंने पीठ थपथपायी.गाल पर प्यार किया और कहा..जाओ,खाना खा लो..पर वह तो क्लास में खाली हाथ आयी थी..मैंने पूछा खाना..? अबकी वह बोली..
मेरे भाई पास...
कहाँ है वो?
पता नहीं..
कौन सी क्लास?
पता नही..
उफ्फ्फ्फ़..फिफ्टीन मिनट की ब्रेक में अब उसे भी खोजो..
२-३ क्लासिज़ में जाने के बाद एक न्यू ऐडमिशन मिला.रोता हुआ...
तुम्हारी बहन है कोई?
उसने रोते-रोते हाँ में सर हिलाया..
खाना लाये हो?
उसने एक कला लिफाफा मेरे आगे कर दिया..जिसमे चार कच्ची रोटीयां अखबार में लिपटी थी..और अचार..
मैंने लिफाफा उठाया और मैम के पास ले गयी..
मैम ,क्या ये खाना खाया जा सकता है?
उन्होंने पूछा..
किसका है ?
न्यू एडमिशन का  ..
ओहो..कैसी है वह लड़की..?
मैम, मेरी कलास में नहीं कर सकती..उसे सारा दिन अकेली भी काम करवा लूँ तो भी नहीं करेगी..
नहीं चलेगी उसे के जी में भेज दो..
सुंदर प्यारी बच्ची होने के बावजूद में उससे पीछा छुड़ाना चाहती थी..
मैंने फिर पूछा..
खाने का क्या करूँ?
मैम कुछ सोचते हुए रुकते हुए बोले..
खाने के लिए तो बोल देते है..आज तो यही खाना दे दो..पर वैसे मुझे लगता नहीं कोई बात बने क्यूंकि  इन बच्चों की सारी ज़िम्मेदारी हमारी अकेडमी की है..किसी ने रहने भर की जगह दी है..कोई डाक्टर है ..अब इससे ज्यादा वह नही कर  सकते की घर में रहने को एक कोना दे दें ...माँ-बाप नहीं है..अनाथ है..
और कोई भी बात जाने बिना मैं क्लास में वापिस आ गयी..
उसे खाना थमाते वक़्त पूछा..
मम्मा और पापा में से किसकी याद ज्यादा आती है..
उसके चेहरे पर फिर हलचल हुई..
भूरी ऑंखें छलकी तब भी नहीं .बस शफ़क की तरह लाल हुई..
देशवीर दरवाज़े पर खड़ा था..."मैम कम्प्लेन रजिस्टर लीजिये....कोई कम्प्लेंट हो तो लिख दो...
ऊपर सुंदर से कवर पर लिखा था..
आप शिकायत तो कीजिये




रविवार, 29 जुलाई 2012

बेफिक्र बचपन सी डायरी

ख्वाहिशों..ख्वाबों ..ख्यालों..से भरी बेफिक्र बचपन सी डायरी..कई पन्ने सिक्को से भरी गुल्लक से खनकते है.और कई पन्नों की तन्हाई अभी तक नहीं टूटी..कोई भी ख़्याल उनके हिस्से में नहीं आया होगा ..कई ख़्याल भी ऐसे हुए होंगे कि उनके मनपसंद का पन्ना इस डायरी में नहीं होगा.खोने से पहले वो मेरे पास थी.उसपर बहुतों की नज़र थी....दरअसल ..वो मेरी थी भी नही....नाम के सिवा कुछ नहीं लिखा था..

कई महीने इंतज़ार करने पर भी जब उसके पन्नों की चुप्पी नहीं टूटी तो वो मेरी हो गयी..मेरी होने पर भी कई रोज तक वो कोरी की कोरी रही..मुझे समझ नहीं आता ..क्या लिखूं..कोई भारी भरकम भाषा के वाक्य लिखना चाहती थी..सोने से पहले उसे एक बार देखती उसके पन्नों को छू कर देखती और सोचती क्या लिखूं..फिर अपनी कोर्स की किताब से ये लिखा "तोतिया मनमोतिया,तेनू आख रही..तेनू वर्ज रही..तूं उस देश ना जा..."
हालाँकि जरूरत मुझे ज्यादा थी पर मेरी सहेलियां किताबों में विद्या के पौधे की पत्तियां रखती थी तब उसमें मैंने गुलाब का फूल रखना चुना.मुझे पता था...किताबों में फूल रखे जाते है..उस गुलाब में अब खुश्बू नहीं बची है..पर उसकी खुशबू पता है... मुझे.सारे गुलाबो की खुश्बू एक जैसी ही होती है..सुर्ख पत्तिओं में से कुल चार बची है बस...
इसमें लिखने के लिए कोई गंभीर विषय नहीं चुना..कुछ जन्मदिन की तारीखे...कुछ इम्तिहानों की..कुछ फोन नम्बर और कुछ पुराने पते..ग्रीटिंग कार्ड्स में लिखी शुभकामनाये..किताबों,अख़बारों, रिसालो ,गीतों ग़ज़लों में जो पसंद आया लिखती गयी..कुछ आधा अधूरा भी ...जैसे लिखते लिखते अचानक से उठ गयी हुंगी.."गुजर जाओ बचकर हर एक याद से...."
शाम तलक मिट्टी में घर बनाती,,आवाज़े दे दे कर बुलाई जाती कि अब बस भी करो...थोड़ा पढ़ भी लो...किताबें खुली रहती ध्यान मेरे घर में अटका रहता..पढ़ने की औपचारिकता खत्म होते ही फिर भाग जाती ..अपने घर को सूखी रेत से ढक देती..किसी को पता ना चले कि फिर मिट्टी में गयी थी चुपके से बिना हाथ धोये सोने चली जाती..हथेलिओं से मिट्टी झाड़ कर अपनी प्यारी डायरी को खोल कर देखती..फिर सिरहाने नीचे छिपा देती..उसको छूने से आज भी हाथ जाने क्यों रेत रेत हो जाते है..
एक रात बीजी साखी(प्रेरणादायक कथा) सुना रहे थे तो मैंने उनसे पूछा कि मर कर सब लोग कहाँ जाते है..उन्होंने कहा..आस्मां में सितारें बन जाते है...मैंने पूछा ...आप भी सितारा बन जाओगे..याद नहीं शायद उन्होंने हाँ ही कहा होगा..
डायरी में एक सीले से पन्ने पर लिखा है "मुझे पता नहीं चल रहा आस्मां में कौन से वाला सितारा बीजी बने है"

एक पन्ने पर मैंने बस एक ही लाइन लिखी है..बाकी खाली है-"मुझे जहाज़ के पीछे भागना पसंद नहीं..पीले जहाज़ के पीछे तो कभी भी नहीं..."
गाँव में अक्सर एक हैलीकॉप्टर आता था पीले रंग का ..गाँव के ऊपर रंग बिरंगे कागज़ गिराता हुआ निकल जाता..सभी बच्चे कागज़ उड़ने की दिशा में भागने लगते पीछे पीछे मैं भी:(..कागजों के पीछे कई गलियां..खेत पार करने पड़ते..जी जान की बाज़ी लगानी पड़ती..फिर जिस बच्चे के हाथ एक आध कागज़ लग जाता वो "हीरो" बन जाता और मिन्नतों खुशामद के बाद वो कागज़ देखने भर के लिए देता..कई देर बाद पता चला कि उस पर लिखा रहता था कद्द लम्बा करने के लिए फ़लां डॉ को मिले :-\..

‎"एक रात चुपके से कोई सारे घोड़े खोल क्यूँ नहीं देता"
निस्सीम अन्धकार में डूबा ये खाली अस्तबल गाँव के बाहर वार अब भी है....जैसे वक़्त का कोई टुकड़ा प्रशंसा या किसी लालच में रुक गया हो..पत्थरों से बना बिना दरवाजों का खाली अस्तबल..सीलन और मिटटी लपकती रहती...किसी के उचाट मन जैसे उबड खाबड़ इंटों के फर्श..जहाँ बारिशो में पानी इकठ्ठा होता..गर्मी में पयाल बिछती..एक बदरंग दीवार से पीपल का तना जंगले पर घुमते घोड़ो को ताकता रहता..घुटी हुई सी किरणें टूटी छत्त से हवा में तैरती रहती..ऐसा कुछ नहीं अब वहां की जिसकी चर्चा की जाये.न घोड़े..न ताँगे..न कोई हाथ घोड़ों की पीठ थपथपाते..न चाबुक बजते..सडक पर कोई टाप संगीत नहीं सुनाती..ताँगे नहीं अब तो लोग सुख दुःख की गठरी जाने किधर रखते होंगे..बाल्टी से घटघट पानी पीते बिना चेहरा उठाये आपकी तरफ देखते घोड़े..हाय! कितने उदास हुआ करते थे..

मंगलवार, 5 जून 2012

आटे की चिड़िया ..(concentration camp prague)

अभी मैंने चित्र बनाने सीखे नहीं थे..
माँ रोटियां बनाती..
...मैं
आटे की चिड़िया ..
वह घर से निर्वासन था..
जिसे मैं लम्बी छुट्टी समझा..
सूखी पहाड़ियों सी माँ की ऑंखें ..
तलाश रही थी एक जगह..
उग आये थे बेवक्त कैक्टस ..
पिता की आँखों की सिलवटों में..
नये दिनों की मोमबत्तियां ..
गुनगुना रही थी
बहन की चमकती आँखों में...
चेहरों पर लगे सभी चेहरे मौन थे..
आटे की चिड़िया 
मेरे हाथ में फडफडा रही थी..
वर्तमान की भागती गाड़ी..
बीत चुके और आने वाले..
जैसा कोई गीत गा रही थी..
साज़ से निकली धुन की तरह..
हर लय मुझसे छूट गयी..
मेरे पास कविता बची थी बोतल में बंद..
पर समन्दर नहीं था..
आस्मां था...
पर दीवारों में छेद नहीं..
मैंने चित्र बनाने नहीं सीखे थे..
चिपकी हुई थी ..
मेरे हाथों से..
आटे की चिड़िया
मैं मर चुका था..
...बहुत दिन हुए...

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

तुम आना

वणजारे हो ...सपनों की वणज करते हो..ऊँचे दाम भी नहीं फिर भी जाने क्यूँ सपनों को खरीदने की हिम्मत नहीं होती..किससे सीखे इतने मीठे लफ्ज़ बोलते हो जो बेचते हो जब सपने...जानते हो जो लफ्ज़ नहीं बोलते हो इससे भी मीठे है..इस राह से लौटोगे..लौटते वक़्त फिर से दिखा जाना बचे हुए सपने..सफ़र में मुझे याद नहीं करना..मेरी ऑंखें उतनी उदास नहीं जितनी दिखती है..ये नींद से उतनी नहीं भरी जितनी सपनों से भरी है......किसी पत्थर युग में ये बुत तुमने घडा है..तुम्हें पता होगा.हर आने वाले दिन को कलम से काटती रहूंगी...लौट के आना कि शामें अब सिल्ली सांवली सी है...हथेली पर लगी महिन्दी सी महकती नहीं है..आना कि गेहूं की पैलियों में बिखरी सरसों चुनेंगे.आना कि टूनेहारी स्याह रातों में अपने अपने आस्मां के सितारें गिनेंगे..चमकते मैं और फीके तुम गिनना.तुम्हें दिखाउंगी नये मौसम में बनाये है पंछियों ने नये घोंसलें फिर से...तुम आना कि तुम बिन रास्तों पर नजर टिकाये बांवरी पीली दोपहरें मारी-मारी फिरती है..मन उड़ा उड़ा सा रहता है तुम बहुत दूर जो बसते हो..मैं पत्तियां झुकाए उदास पेड़ सी खफा लगूंगी तुम्हें..तुम मनाना मुझे मेरे बचपन वाले नाम को पुकार कर..आधी-आधी रात उठ कर तुझे हाक मारने को जी चाहता है..सोये हुए घूक अँधेरे के सीने में छिप जाऊं ..मेरे होंटों को चूम ले तेरा ज़िक्र..मोती रंग की चांदनी गवाही देगी कि दूज का चाँद मुस्कराता है बिलकुल तुम्हारी तरह..
तुम आना..........