बिरहा का सुलतान ... पंजाबी कविता का मीर शिव कुमार बटालवी...
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो,
अभी टुक रोते रोते सो गया है..
महबूब शायर शिव..उदासी उसके गीतों में लबालब भरी हुई थी के उसे निराशावादी कवि तक कहा जाता था. जो हमेशा मौत की बातें करता था.यौवन में मरने की बात सुनाता था...इतनी कम उम्र में इतनी शोहरत फिर भी उसकी आत्मा मुक्ति की बात करती..अभी टुक रोते रोते सो गया है..
प्रभु जी..
बिन बिरहा की इस मिट्टी को
अब मुक्त करो..
ढूध की ऋतू में गुजरी अम्मी
बाबल बचपन में,
और यौवन की रुत में सजनी
मरें पहले पहले सभी गीत मेरे..
मुझे विदा करो...
प्रभु जी..मिन्नत है ...
मेरी बांह न जोर से पकड़ो,
मुझे विदा करो..
उसका हाल फकीरों का सा था...बिन बिरहा की इस मिट्टी को
अब मुक्त करो..
ढूध की ऋतू में गुजरी अम्मी
बाबल बचपन में,
और यौवन की रुत में सजनी
मरें पहले पहले सभी गीत मेरे..
मुझे विदा करो...
प्रभु जी..मिन्नत है ...
मेरी बांह न जोर से पकड़ो,
मुझे विदा करो..
क्या पूछते हो हाल फ़कीर का...
इस नदी से बिछड़े नीर का...
न जाने और कितना दर्द सहना था उसने अभी वो मरते मरते भी और दर्द और दर्द मांगता रहा..जाने कितनी प्यास थी उसे....
मैं छोटी सी उम्र में सारा दर्द सह चुका ,
जवानी के लिए थोड़ा दर्द और दो..
उसके गम की रात एक उम्र जितनी लम्बी थी...पर बहुत छोटी थी...रात भी खत्म हो गयी और बात भी..उसके बिरह से जलते गीत भी...वो कहता रहा-जवानी के लिए थोड़ा दर्द और दो..
गम की रात लम्बी है
या फिर मेरे गीत लम्बे है..
न ये रात खतम होती है न मेरे गीत..
न जाने क्यों बिछड़े हुए अपनों की याद उसे खाए जाती थी..ज़िन्दगी से उकताया हुआ बेजार था.अपनी सांसो का दर्द हवाओं में घोलता अपना आप भुला बैठा था..उसने गम को खाना सीख लिया था...तभी तो..या फिर मेरे गीत लम्बे है..
न ये रात खतम होती है न मेरे गीत..
मैंने तो मरना है जवानी के किसी मौसम में.
और लौट जाना है वापिस इसी तरह भरे भराए...
तेरे हिज्र की परिक्रमा करके
मैंने जवानी में ही मर जाना है..
जो इस मौसम में मरता है
वो या फूल बनता है या सितारा..
जोबन के मौसम में आशिक मरते
या फिर कोई किस्मतवाला..
या फिर जिनकी किस्मत में जन्म से हिज्र लिखा हो..
तुम्हारा दुःख मेरे साथ बहशत तक जायेगा..
भला जीना किस लिए मुझ जैसे बदनसीब को..
जनम से ले के जवानी तक शर्म पहने रखी..
आओ जन्म से पहले ही उम्र पूरी कर ले
...फिर शर्म ओढ़ ले....
मर के एक दूजे की परिकर्मा कर ले..
और लौट जाना है वापिस इसी तरह भरे भराए...
तेरे हिज्र की परिक्रमा करके
मैंने जवानी में ही मर जाना है..
जो इस मौसम में मरता है
वो या फूल बनता है या सितारा..
जोबन के मौसम में आशिक मरते
या फिर कोई किस्मतवाला..
या फिर जिनकी किस्मत में जन्म से हिज्र लिखा हो..
तुम्हारा दुःख मेरे साथ बहशत तक जायेगा..
भला जीना किस लिए मुझ जैसे बदनसीब को..
जनम से ले के जवानी तक शर्म पहने रखी..
आओ जन्म से पहले ही उम्र पूरी कर ले
...फिर शर्म ओढ़ ले....
मर के एक दूजे की परिकर्मा कर ले..
.शिव एक कविता जो पूरी नहीं हुई.
शिव कुमार(जुलाई २३,१९३७ -मई ७,१९७३)
रचनाएँ:
१:पीड़ा दा परागा-१९६०
२:लाजवंती-१९६१
३:आटे दीयां चिड़ियाँ-१९६२
४:मेनू विदा करो-१९६३
५:बिरहा तूं सुलतान-१९६४
६:दर्दमंदा दीयां आही-१९६४
७:लूणा-१९६५
"लूणा" शिव कुमार बटालवी (१९३७-१९७३)का लिखा एक महाकाव्य है.लूणा शिव ने १९६५ में लिखी जब वह २८ साल के थे.१९६७ में इसे साहित्य अकादमी अवार्ड मिला जब वह मात्र ३० साल के थे.
किसी आह सी नाज़ुक ग़मगीन आवाज़....जो आसमानों का सीना चीर देगी...
किसी आह सी नाज़ुक ग़मगीन आवाज़....जो आसमानों का सीना चीर देगी...