रविवार, 25 सितंबर 2011

यह एक कविता है..
एक साधारण कविता..
कविता काल्पनिक भी है..
..हालाँकि नाम वास्तविकता के कुछ करीब हो सकते है..
पर पात्र कविता की तरह साधारण ही है..
सोना..
..सोना खुद रोती है..किसी बडे अफ़्सोस् जितना।
पर दादी के आंसू नहीं पिघला पाते उस बर्फ को..
जाने क्यों इतनी जिद्द..
पूरे खुले शीशे को और खोलने की.
भूल जाती है या खो जाती है..
कॉरिडोर में..
देर बाद लौटती है..
..वो भी बिना पिए पानी..
उसे पता नही चाहिए क्या..
देर तक देखती है..
रेलिंग पर बैठे कौओ को..
फेंक देती है उनके आगे सारा खाना..
नही नही..
भूखे नही रहती..
वह तो..
छीन लेती है किसी और से..
उलझती रहती है आढ़ी टेढ़ी चन्दरी रूहों सी रेखाओं में..
भर देती है कागज़ गोल लाल बिंदियो से..
..इस दिसम्बर आठ साल की हो जाएगी..सोना..
चार साल से नही मिली माँ से..
पर बताती है..
उसे याद है अभी तक उसकी..
और जब याद आती है तो बहुत याद आती है..
.....................................
सोना की सूरत पापा सी नही है..
पर दोनों ही कभी किसी को नही दिखे....
मुस्कराते हुए...