अभी मैंने चित्र बनाने सीखे नहीं थे..
माँ रोटियां बनाती..
...मैं
आटे की चिड़िया ..
वह घर से निर्वासन था..
जिसे मैं लम्बी छुट्टी समझा..
सूखी पहाड़ियों सी माँ की ऑंखें ..
तलाश रही थी एक जगह..
उग आये थे बेवक्त कैक्टस ..
पिता की आँखों की सिलवटों में..
नये दिनों की मोमबत्तियां ..
गुनगुना रही थी
बहन की चमकती आँखों में...
चेहरों पर लगे सभी चेहरे मौन थे..
आटे की चिड़िया
मेरे हाथ में फडफडा रही थी..
वर्तमान की भागती गाड़ी..
बीत चुके और आने वाले..
जैसा कोई गीत गा रही थी..
साज़ से निकली धुन की तरह..
हर लय मुझसे छूट गयी..
मेरे पास कविता बची थी बोतल में बंद..
पर समन्दर नहीं था..
आस्मां था...
पर दीवारों में छेद नहीं..
मैंने चित्र बनाने नहीं सीखे थे..
चिपकी हुई थी ..
मेरे हाथों से..
आटे की चिड़िया
मैं मर चुका था..
...बहुत दिन हुए...
माँ रोटियां बनाती..
...मैं
आटे की चिड़िया ..
वह घर से निर्वासन था..
जिसे मैं लम्बी छुट्टी समझा..
सूखी पहाड़ियों सी माँ की ऑंखें ..
तलाश रही थी एक जगह..
उग आये थे बेवक्त कैक्टस ..
पिता की आँखों की सिलवटों में..
नये दिनों की मोमबत्तियां ..
गुनगुना रही थी
बहन की चमकती आँखों में...
चेहरों पर लगे सभी चेहरे मौन थे..
आटे की चिड़िया
मेरे हाथ में फडफडा रही थी..
वर्तमान की भागती गाड़ी..
बीत चुके और आने वाले..
जैसा कोई गीत गा रही थी..
साज़ से निकली धुन की तरह..
हर लय मुझसे छूट गयी..
मेरे पास कविता बची थी बोतल में बंद..
पर समन्दर नहीं था..
आस्मां था...
पर दीवारों में छेद नहीं..
मैंने चित्र बनाने नहीं सीखे थे..
चिपकी हुई थी ..
मेरे हाथों से..
आटे की चिड़िया
मैं मर चुका था..
...बहुत दिन हुए...
पंख लगे थे, उड़ने को बस..
जवाब देंहटाएंAah!
जवाब देंहटाएंसूखी पहाड़ियों सी माँ की ऑंखें ..
जवाब देंहटाएंतलाश रही थी एक जगह..
कौन सा शब्द रचें इसके लिए....
बाबुल मोरा नैहर छूटा जाए.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब.....
जवाब देंहटाएंawesome
जवाब देंहटाएंwaah!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंएहसास के ये घने बादल
आटे की चिड़िया के उड़ान जैसी
बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंLIKE karne ka option nahin hai kya...???
जवाब देंहटाएंवाह......................
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी अभिव्यक्ति है......
दिल को छू गयी...
अनु
बचपन याद आ गया.....
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2012/06/8.html
जवाब देंहटाएंआटे की चिड़िया को आसमान की धूप नही चूल्हे की आग नसीब होती है..जिंदगी अलग-अलग लोगों के लिये अलग अलग मुखौटों मे आती है..कुछ चेहरों की पहचान शर्ट पर लगे लेबल की तरह बदली जा सकती है..मगर कई चेहरे ऐसे होते हैं जिनके माथे पर उनकी पहचान के निशां दाग दिये जाते हैं...खुशनसीब हैं हम कि हमारी कविता/अभिव्यक्ति की कागजी नावों के लिये रिसालों, अखबारों से ले कर बारहमासी इंटरनेट तक के समंदर मौजूद हैं (भले ही यह खुशनसीबी हमे कोई खुशी नही देती हो)..मै उनके बारे मे सोचता हूं जिनके पास न तो नाव है और न ही समंदर..वक्त के क्रूर मुकाम पर जेलबंद वो लोग जिनके नसीब मे आसमान नही बल्कि चार मजबूत और बिना दरारों की दीवारे हैं..वक्त किसी जेल की दीवार की तरह होता है..जिसपर सिर्फ़ उन लोगों के दर्द की शिनाख्त रहती है..जो अपने दर्द को उस पर उकेर देते हैं..उन लोगों के दर्द का कोई निशां नही रहता जिनको अपना दर्द दीवारों पर दर्ज कराने का तरीका नही आता...कितनी रातों के दामन मे सुबह का उजाला नही लिखा होता
जवाब देंहटाएंमैंने चित्र बनाने नहीं सीखे थे..
चिपकी हुई थी ..
मेरे हाथों से..
आटे की चिड़िया
मरी हुई ही सही मगर यह आटे की चिड़िया जब तक वक्त के हाथों से उलझी रहेगी..किसी पिंजरे मे बंद जिंदा चिड़िया के परों मे आसमान का सपना बाकी रहेगा....
जब पढ़ी थी तभी फ़ैन हो गया था इसका..