रविवार, 29 जनवरी 2012

लो लिख दिया..

 १ 
सफेद दुपट्टे पर...
जरा-जरा सा..
फालसा किनारा..

...एक लम्बी कविता को ..
...लिखने के बाद ..
काटे हुए ..
..गैरजरूरी..
शब्दों जैसी..

...पलकों में बंद..
...शबनम जितनी..

..मैं..
तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी का..
एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा भर हूँ..
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 सुनो..

गिरी पड़ी..
किताबों को..
..जब सही जगह रखो..
उनसें गिरा कोई..
खत..
मिले तो..
..फिर न पढ़ना..

मेरा नाम..
गर लो...
तो होंठों पर उंगली रखना..

बताओ !
क्या तुम्हें पता है..
सितारे टूट कर..
सच्ची में नहीं गिरा करते..
दुनिया में..
किसी जगह..
सपनें भी नहीं उगा करते..

मैं जानती हूँ..
भले ही देखूं..
आखरी माले से..
आसमां..
दूर नज़र आएगा..

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

उठता है..
.. हरे किनारों से..
और..
रूह तक उतर जाता है..
ये जो रुई के फाहों सा..
घना कोहरा..
सड़क के दामन में भरा रहता है..
..ज़मी कांपती है हौले-हौले..
निगाह हुई जाती है धुंध-धुंध..
पलक झपकता है..
ऑंखें मलके..
..ऊंघता सूरज..
भीगे घर दुबक के सोते है..
...कहीं से चाय का गुमसुम..
धुआं सा उठता है..
...गुम हो जाता है..
...शबनमी हवा में..
ऐसे में...
इस ख्वाबगाह से गुजरते हुए..
अक्सर तेरी याद बहुत आती है...