सोमवार, 26 जुलाई 2010

प्रेत बोलते हैं

 

क्या और कोई भी, रास्ता नहीं था तुम्हारे पास ?


अरे ! न... न...
तुम मेरे दोषी तो हो ही नहीं सकते...

बस कुछ है,
कुछ है जो...


क्यूँ न,
कोई छत मेरे ऊपर आ गिरती .

या फिर...
यूँ किया होता,
ढेर सारी स्लेटी गोलियां और...
...
किस्सा ख़त्म !

मुझसे पूछा होता बहाना...



क्या सच में,
इस तरह...
मेरा मरना जरूरी था ?

या फिर...
उसे तो हटा दिया होता सामने से.
कैसे चीखती ?
आवाज...
जैसे गले में अटककर रह गयी थी.
वो...
वो खड़ा था न वहां पे,
वो जो रोटी के सेक से लाल हुए मेरे हाथ देख कर...
रुआंसा हो उठता था.

कैसे चीखती ?
वो ज़ो देख रहा था मुझे जलते हुए.
वो अगर दौड़ के लिपट ही जाता मुझसे...

कैसे सोया होगा बची हुई रातों में मेरे बिना
सुबकता रहा होगा नींद में भी वो...
मुझे आखरी बार उसे सीने से लगाने देते
बस इतना ही कहती,
मेरा राजा बेटा है न तू...
देख, मुझे याद करके रोना नहीं...
न !!

क्या सच में और कोई भी, रास्ता नहीं था तुम्हारे पास ?

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010



हाथ छूटा है जब से
कुछ तो कम कम सा है
उलटती पलटती हूँ
हाथों को
कई बार
अंगूठी के
इक इक नग को गिना है
हर बार पूरे निकले
..सात..
हाँ..
..हथेली पे मेरी
इक तिल हुआ करता था
तुम्हारी उंगलिओं में देखो ज़रा...
..शायद...


* * * * * * * * * * * * * * * *







दो प्यालों में
दो दो ही क्यूब्स तो डाले थे
जाने क्यूँ
फिर भी तुमने प्याले बदल लिए
चाय तो तुम्हारी भी उतनी ही मीठी थी
तुम भी न..
....कितने फ़िल्मी हो गये थे....