गुरुवार, 29 दिसंबर 2011


नहीं कोई उम्मीद ..
नहीं..कोई अपेक्षा नहीं..
फिर भी कुछ ऐसा...
 जो अच्छा है..
.कितना कुछ है हममें ..
और कुछ भी नहीं..
एक बार..
 ले चलो वहां...
... जहाँ काशनी फूल खिले हो...

..जहाँ हवा बहे तो महसूस हो....
 इत्मीनान हो..
कुछ जरा आराम हो...
जहाँ  ख्वाबों की मूर्त ना हो धुंधली ..
...बसंत के दिन ..
पतझड़ की तरह हो ठन्डे ..
खामोशी की तहें बिछी हो..
बंद करदे शोकगीत गाना..
रात का वो..
अकेला पंछी..
तब..
तुम्हारी सांसों के पत्ते
अचानक से गिरे..
तोड़ दे मेरे मौन को..
मौन...
... स्याह रात के अँधेरे सा मौन..
रुको नहीं ..
कुछ कहते-कहते..
थकूं नहीं मैं सुनते-सुनते..
हलचल हो बस इतनी..
पानी में कंकर जितनी..
ले चलो वहां..

जहाँ...

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

बिल्कुल सीधे चलना सड़क के  मोड़ तलक....
फिर दायें...
...कि जैसे गली जुडती  है वहाँ,
वो जगह,
जहाँ गली के दोनों तरफ़ अशोक ...
बुतों से खड़े हैं,
वही पे धूल भरा...
...सामने का पहला मकां.
कि अब यही पहचान है उसकी कबसे,
गोया इंतज़ार कर रहा है बीते कई सालों से..
थोड़ा आगे..
किसी झरोखे में मद्धम सा दिया...
टिमटिमाता है सवेरे की अलसाई सी रोशनी में...
यूँ कि इक नज़र  उनीदीं आँखों की झाँक रहा हो उचक उचक के झरोखें से,
सुबह की पहली चाय से पहले उठा जो...
दिन भर फिर ऊँघता ही रहा...

एक मकान आम अमरूदों  के दरख्तों से घिरा...
चहचाहाता है सुबह होते ही,
चहचाहाता रहता है शाम होने तलक...
उसे ये  नाज़ है कि 
ज़िन्दगी बसी है तो बस उसी के घोंसलों में...
...वो एक मकान जो के घोसलों से मिल के बना है.
एक शर्मीला सा मकान अपनी ही बेल बूटों में छिपा.
घबराया सा...
सुबह पहली किरण से जाग जाता है...
 सुनहरी मकान ...
गली की आखिर में...
एक मकान बड़ा उदास सा है..
मन्दिर के बाहरवार..
..लकड़ियों की सीढ़ियों के ऊपर..
जरा झुका सा छज्जा..
गालों पर हाथ टिकाये..
..सोचता रहता हरदम..
...आम के बाग के पीछे...
गिरने को है जो मकान...
..अपने गुज़रे हुए कल लिए
बोने वाले की नीयत या मौसमों की मेहरबानी...
उसके आंगन के गुलाब अभी..महकते है...
ये मकान  कुछ भी तो बोलते नहीं...
फिर भी कुछ न कुछ कहते है...

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

कभी शदाय सा उठता है..
वक़्त को ले थाम..
छुपा ले निशानियाँ थोड़ी..
कहीं कुछ तो बचा ले..
धड़ाम-धड़ाम गिरती सभी सोचें..
..नर्म नाज़ुक रही होंगी...
तलवे जल जाया करते थे कभी..
बोच-बोच पैर  जब चला करते थे...
..अंगार अब नहीं बचे सुर्ख ईटों में..
...और तपिश सूरजों की भी हुई ठंडी..
एक पूरा महीना हुआ करता था बरसातों का..
...कच्ची छत की मिट्टी बहा करती थी परनालों से..
..बस...आज दीवारें ही बच पाएंगी..
छतें पक्की हुई कब की...
अब तो बरसातें भी छोड़ देती है.
कभी -कभी एक घर सूखा..
उन दिनों पलाश भी
कुछ इस तरह झड़ा करता था..
..सारी आंधियां मानो चली हो उसी पर...
वक़्त ने पूर दिए सब के सब कुएं..
..हर नक्शे में ढूंढा उसे..
जिसकी दीवारों से उगा करते थे नन्हें पीपल..
एक पलाश...पुर चुका कुंआं...और एक कच्ची छत..
वक़्त गुजर रहा है...
और...
एक दिन हम भी गुजर जायेंगे...
..आर-पार...


रविवार, 25 सितंबर 2011

यह एक कविता है..
एक साधारण कविता..
कविता काल्पनिक भी है..
..हालाँकि नाम वास्तविकता के कुछ करीब हो सकते है..
पर पात्र कविता की तरह साधारण ही है..
सोना..
..सोना खुद रोती है..किसी बडे अफ़्सोस् जितना।
पर दादी के आंसू नहीं पिघला पाते उस बर्फ को..
जाने क्यों इतनी जिद्द..
पूरे खुले शीशे को और खोलने की.
भूल जाती है या खो जाती है..
कॉरिडोर में..
देर बाद लौटती है..
..वो भी बिना पिए पानी..
उसे पता नही चाहिए क्या..
देर तक देखती है..
रेलिंग पर बैठे कौओ को..
फेंक देती है उनके आगे सारा खाना..
नही नही..
भूखे नही रहती..
वह तो..
छीन लेती है किसी और से..
उलझती रहती है आढ़ी टेढ़ी चन्दरी रूहों सी रेखाओं में..
भर देती है कागज़ गोल लाल बिंदियो से..
..इस दिसम्बर आठ साल की हो जाएगी..सोना..
चार साल से नही मिली माँ से..
पर बताती है..
उसे याद है अभी तक उसकी..
और जब याद आती है तो बहुत याद आती है..
.....................................
सोना की सूरत पापा सी नही है..
पर दोनों ही कभी किसी को नही दिखे....
मुस्कराते हुए...

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

ये इतना आसान नहीं होगा...
नज्मों में मेरा अब से नहीं होना...
....तुम्हें पहले से ज्यादा ध्यान रखना होगा..
कवि कहीं ये बात भूल नहीं जाये...

कवि को चेताते रहना..
आखरी पुल से गुजरते वक्त..
उस तरफ़ नहीं देखे
जहाँ मैं और तुम खड़े सोच रहे थे
...अब किस तरफ़ जाये...

मोल भाव किये जामुन..
रास्ते में नहीं भूल जाये...
लेकिन मोहन पार्क की सीढ़ियों से...
निशान मिटाना याद रखे...

रास्तों को पार करते हुए..
दोनों तरफ़ देखें..
ये जरुरी है...
जहाँ भीड़ ज्यादा है ..
वहां कुछ बुरा ही हो..
ये जरुरी नहीं...

सिर्फ़ छूई-मुई को पानी देते हुए
ध्यान रखे...
सभी पौधे छूई-मुई नहीं होते..
पर हर छूई-मुई छूई-मुई होती है...

फिर भी अगर उसकी नज्मों में..
मैं थोड़ा बहुत रह जाऊं ...
तो कवि से कहना...
....चल हऊ कर दे...

बुधवार, 8 जून 2011

पता नहीं क्यों..आपसे कितना भी चिढ जाऊं..पर आपकी बात ना मानूं ऐसा नहीं कर पाती..आपने कहा था डायरी लिखूं...नहीं लिखना चाहती थी...फिर भी ....दुनिया बदल जाना किसे कहते है..मैंने अभी जाना नहीं था..एक दरवाज़ा बाहर की तरफ़ खुलता था ..एक अंदर की तरफ़..सामान उतारा जा चुका था..गाड़ी धूल की लकीर अपने पीछे छोड़ती हुई जाती दिखी...जी चाहा भाग के धूल का एक छोर पकड़ लूँ..पर..मैं अपनी जगह से हिली तक नहीं..ना बाहर जाने के लिए ना अंदर जाने के लिए..सब मेरी जानकारी में
मेरी मर्जी से हो रहा था..फिर भी मैं हैरान थी...मुझे पता नहीं ..मैंने कब अंदर जाने वाला दरवाज़ा खोला..दुनिया,बदल जाना मैंने जान लिया था..एक भी ऐसा चेहरा नहीं जिसे मैंने पहले देखा हो.ऐसी कोई भी आवाज़ नहीं जिसे पहले सुना हो..मैं वहां क्यों थी..मुझे वहां नहीं होना चाहिए था..मैं अपना भला बुरा नहीं जानती ..ना जानना चाहती हूँ......रेलिंग पर खड़े हुए सूर्य अस्त को देखती रही ..कितना बुरा लग रहा था उसका यूँ चले जाना..जाने कब आंसू बहने लगे कब हिचकियाँ बंध गयी..मुझे कुछ पता नहीं कितनी आवाज़े मुझे बहला रही थी..मैं किसी को नहीं जानती..मैं किसी को जानना भी नहीं चाहती..
मैं कुछ सुनना नहीं चाहती..मुझे यहाँ नहीं रहना..मुझे बस लौटना है अपनी दुनिया में..घंटो रो लेने के बाद मैं चुप थी..पर उदास..बेहद उदास....एक रात..एक सुबह..एक दोपहर ..कुछ ना खाने के बाद मैंने जाना भूख किसे कहते है..सूर्य  फिर जा रहा रहा..मैं गीली आँखों से उसे देखती रही..मुझे यहीं रहना है..मैंने आँखे उठा के सब और देखा..चेहरों को पहचानने की कोशिश की..पहले माले से चौथे  माले तक की सीढ़ियों को गिना..
कॉरीडोर में पड़े गमलो में पौधो को छुहा..खाना भी खाया......मैं वहाँ थी जहाँ मुझे नहीं होना चाहिए था..पर आप कहते हो कि वहीँ होना चाहिए था..आपकी बात मना नही कर सकती....

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

ख्वाबो की गुलाबी दीवारें

 दीवार पर खिसकते हमेशा सूरज के बस में रहने वाली धूप के टुकड़े की तरह दिन धीरे-धीरे खिसक रहे है.रातें और ज्यादा खामोश हो जाएँगी.कोई किताब खत्म करके यूँही टकुर-टकुर इन दीवारों को ताका करूंगी.धरती आस्मां की तरह ये दीवारे यंही रहती है बस देखने वाली नज़रें बदलती रहती है.
गुलाबी रंग..क्या इन्हें भी पसंद होगा? कहीं इन्हें पीला रंग तो नहीं पसंद.कौन पूछता है दीवारों की मर्जी..ये बताती भी कहाँ है.बरसो बरस मौन खड़ी  रहती है इनके बस कान होते है ज़ुबां कोई नहीं.बस पुरानी दीवारों पर कुछ धुंध-धुंध चेहरा उभर आते है दिन चड़े वो भी भूल जाता है.नया रंग अपनी तहों में सब कुछ छुपा लेता है.कोई पहरा नहीं इनपर फिर भी कहीं आती जाती नहीं खुद पे खुद ही अंकुश लगाये रहती है.बना लो तो बन जाती है गिरा दो तो गिर जाती है..जहाँ-तहां तस्वीरें लगा दो..कोई रोष नहीं..प्रतिवाद नहीं..एक रंग के सिवा कुछ भी तो नहीं बदलता..वही दरवाज़े,वही खिड़कियाँ,वही तस्वीरें....
परछत्ती पर रखी एक-एक याद को,टूटी-फूटी कहानियों को,अधूरे फालतू छुपा के रखे ख्वाबो को झाड़ पोंछ कर देखूंगी जब तुम नहीं...
(ख्वाबो और किताबों की गुड़ती ही मिली है मुझको)  मैं उस दिन का तस्सवुर नहीं करना चाहती जब तुम...
तुम बेशक चले जाओगे पर मेरे पास भी उतना ही रह जाओगे...

तुम भी मुझे याद किया करोगे..हर वक़्त नहीं पर कभी तो सोचोगे..कहोगे पर कुछ भी नहीं..कुछ बातों के लिए शब्दों की जरुरत नहीं होती..यूँ भी पहाड़ तो मौन ही रहते है.पथरीले सूखे....पर जल का निर्मल कोई सोता तो उनके अंदर भी बहता रहता है..तुम मेरी हर जिद्द मान लेना चाहते हो पर कठोर बने रहते हो.हर बार यही कहते हो,"तुम बहुत फरमाइशी हो गयी हो.ये आखरी जिद्द है इसके बाद कोई जिद्द नहीं मानूगा."ज़ी चाहता है फिर से जिद्द करूं ...मत जाओ...पर बादल साया बनके हमेशा कब रहते है..जब तक बरसोगे मैं बारिश में सराबोर रहूंगी...


रविवार, 27 मार्च 2011

कहाँ तलाश करूँ? जाने किसे?

हसीन ख्याल,
अजाब-ए-जान बन जाते हैं.
ख्यालों की छाया को वर्कों पे उतारने का मन होता है.
पर एक भी पन्ना खाली नहीं मिलता...

चाँद,
कभी शरमाया हुआ
कभी सोगवार नज़र आता है.
बादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं.

तेज़ हवा,
पत्तों से टकराती हैं तो उदास सी आवाज़ हो आती हैं.
ऐसे में,
खिड़की के बाहर,
शाम की रोशनी के ख़त्म होते ही,
पेड़ों पे बिखरी-लिपटी बेलें मासूम सी नज़र आती हैं.
तुमसे किस मौसम की बात छेड़ दूँ ?
कि बिन मौसम के मौसम की बात भी नहीं की जा सकती.
है न?

परिंदा,
अकेला...
डाल से बिछड़ा,
फिर भी,
कानों में आसमानी मौशिकी घोलता है.
नपी तुली आवाज़ में,
जाने क्या क्या भविष्यवाणी करता है?
ज़ल्दी-ज़ल्दी से चोंच में दाना लिए
कहीं दूर से उड़कर आता है.
घास के तिनकों की नरमी में इश्वर की ख़ुश्बू बसी होती है.

रसोई,
खुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों.

एगज़ोज्ट-फैन,
बरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए.

तुम,
आँखें बंद करके लेटे हुए सुनते रहते हो,
मेरे दिनभर की जमा बातें.
फासलों की ख़ामोशी में मेरी आवाज़ तब तुम तक नहीं पहुँचती,
जब तुम कई बार सो जाते हो...
या नज़र बचा के साथ पड़े लैपटॉप को रिफ्रेश कर लेते हो.
मेरे पूछने पर कहते हो,
"कहाँ? मैंने तो इधर देखा भर बस,
सुन तो तुम्हें ही रहा हूँ."
जाने कैसे बही-खाते है जो सारा दिन लैपटॉप पे झुके पढ़ते रहते हो?
हालाँकि छत पे पहले से ज्यादा धूप रहती है, पर,
धूपों का मौसम अब जा रहा है,
उदासी भरी 'दोपहरें' पाँव पसार रही हैं.
अचानक से कोई 'वावरोला' उठता है और सारी सोचों को दरहम-बरहम कर जाता है.

किसी किताब के पन्ने,
पलटूं भी तो कितने?
पात्र किताबों से निकलते चलते चलते मेरे मन में दुनियाँ बसाने आ पहुंचे हैं.
काल्पनिक पात्र सच और असली बे-यकीनी होकर छलते रहे हैं.
कभी किताब से वो बाहर नहीं निकलते तो, मैं ही,
अपने आप से बाहर निकल,
उनमें खो जाती हूँ.
किसी और की ज़िन्दगी जी लेती हूँ.
खुद को देखती हूँ,
पूरा !
एक साथ !!

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

मुख़्तसर सी बात...

अच्छा ये बताओ,आज किसका नम्बर है?
किसका सपना देखोगी? :)
उफ़ जी चाहता है बाल नोच लूँ .उसके नहीं अपने.
चिढ़ के कहती हूँ,"तुम्हारा"
मेरा क्यूँ?
मेरा नहीं,रहने दो फिर,सपना तो किसी और का देखना होगा.
अच्छा  ये रहने दो,ये बताओ कि देखने नहीं आया कोई? :)
कोई आने वाला था न?
हाय रब्बा!! कितना बोलता है ये लड़का.
हाँ,देख गया..
ओह गुड..
बताया भी नहीं हमें.
मेरी मर्जी..
शाम ढलने लगी,पंछी भी लौट चले.बत्तियां जल उठी.मैं भी जाऊं अब?
ठीक है जाओ..

xxxxxxxxxxxxxxxx


तुम्हारी सभी तारीफ करते है.
तुम्हे सब चीज़े कैसे पता रहती हैं?
मुझे कुछ क्यूँ नहीं आता?
सब लोग ऐसे ही बोलते है,मैं  से खूब अच्छे से पहले से ही पढ़ के आता हूँ,जो भी सर पूछते है फट से बता देता हूँ.पता है परसों जो थियुरम करवाई थी वो मैंने घर जा के ५१ बार लिख लिख के देखि.५० बार में तो मुझे समझ नहीं आई थी.so practice makes a man perfect.
हम्म ..मेरा मन नहीं करता.
ऐसे थोड़े न चलेगा.अच्छा,दिखाओ अपनी नोट बुक.कल जो टोपिक मिला था,दिखाओ कितना लिखा तुमने?
बस इत्ता सा..इसे और लिखो.
नहीं और नही लिखा जाता..मुझे इत्ता ही आता है.
लिखा जायेगा,लिखोगे तो आएगा.
तुम लिख दो.
मैं??
मैं क्यूँ लिखूंगा?
जिसका काम वही लिखे,इसे और लिखो अभी..
हम्म...

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क्या बात..:)
बड़ी डिसकशन हो रही थी प्रीती से :)मूविस,गाने जाने क्या क्या..
हम्म..वो पूछ रही थी मैं बस बता रहा था.

आये हाय हाय...और क्या पूछ रही थी?
तुम्हारा भी दिमाग जाने क्या उल्टा-पुल्टा सोचता रहता है.
चलो रहने देते है.प्रीती कि नहीं नीता की बात करते हैं.तुम्हे कितना पसंद करती है एक दिन नहीं आते हो तो पूछती रहती है हर किसी से तुम्हारे लिए.और है भी सबसे सुंदर..तुम्हारी जोड़ी खूब अच्छी लगेगी.
हद्द है..कैसा उल्टा दिमाग है तुम्हारा.
अच्छा जी ,अपनी बारी आई तो मेरा दिमाग ही उल्टा हो गया.
ठीक है मुझे सारी लड़कियां पसंद है..प्रीती भी.नीता भी.नैना भी सुनयना भी.खुश..या और कुछ बाकी रह गया अभी.
हुं..मुझे क्या..


xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx


कब जा रहे हो?
परसों..
कब आओगे?
पता नही..
अच्छा है..
तुम आराम से रहना अब..
कोई परेशान नहीं करेगा.
हम्म..
वो तो है...
तुम भी खुश रहना..
तुम्हे भी तो कोई परेशान नही करेगा.
हम्म..
रेत घड़ी हर रोज़ पलटती है....

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सूना-सूना सा आकाश
बसा है मकानों की छतों पे अभी..

परदें हटाओ गर
तो खिड़कियों पे..
 दिखती है खामोशी की परछाइयाँ..

लिपटी पड़ी है उदासी सी
सीखचों पे भी..

मगर कभी गुटका करेंगे
कांपते कबूतर रोशनदानों में..

सर्द कागज़ पर बर्फ से लफ्ज़
पिघल निकलेंगे..

हरी हवा उगने लगेगी
पतझड़ी समय में..

डार परिंदों की निकलेगी बतियाते हुए..
नज़र थिरकेगी हर शैय पे आते जाते हुए..

गुनगुनी धूप सहलाएगी सारी फ़िज़ा को..

जमा-रुका सा कुछ मन में
दस्तक देगा..

खुले दरीचों में से दिखने लगेगी
..बसंत-बसंत..

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

कोमल कांपती..
ध्वनियों में बहती..
कानों में उतरती..
लबों पे थरथराती..
बीहड़ मन में
समा जाती सभी स्वर लहरियां..

अबूझ गीतों के अमिट भाव..
कुछ-कुछ शोकाकुल से..
मंद गति से खत्म होते-होते..
अचानक फिर से,
ऊँचे सुर पकड़ते..

शरीर और आत्मा
किसी अधम में तैरती...
शांत..
चेतनाशून्य..

तरंगे उठ रही है तब भी
बहरे कानो में..
सारंगी जबकि
टूट चुकी है अब कबकि..

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

नज़रे तैर के,
दूर चली जाती है
अतीत के फलक तक..

हालाकि याद नहीं ठीक से मुझको
पर कभी बहुत पहले पहल..
..वक़्त...
...रहा होगा..
यही कोई..
धूप का आखरी पहर.
.जगह..
..वही सीमेंट का बेंच..

तुमने कहा था-
अभी तो...
...नाचते है लफ्ज़ो के मोर
कोरे पन्नो पे..
खुशनुमा बादल बरसते है
जब शबनम की तरह..

तुमने कहा था
शायद..
..आने वाले मौसमों को सोच के..
कहीं यूँ न हो के दूर होके..
महसूस करें कोई कमी..
बिछड़ना बस में न रहे..
वक़्त को बीनते-बीनते
थक ना जाये कहीं...
चलो ऐसा करे..
..बात कम-कम करदें..

मुझे बस इतना बतादो...
ये कहते हुए..
...तुम्हारी आँखों में लरज़ रही थी धड़कने..
या कोई सैलाब उतर आया था..
तुम्हारे होंठों की मुस्कान
बराबर बनी हुई थी कि नहीं...

मंगलवार, 25 जनवरी 2011


कागज़ कब सीला हो गया कुछ मालूम नहीं.पेंसिल (जो शार्प नहीं है )लिए हाथ  कब से खर्च किये पलों के बारे में सोच रही  हूँ..कहाँ...आखिर कहाँ !बरसों बाद लिखूंगी तुम्हें ये ख़त हालाकि तब मुझे तुम्हारा पता पता नहीं होगा.तुम जवाब में ये बताना कि क्या सच में हवा में आवाज़े कैद हो जाती है ?हमारे नहीं होने पर भी बहती रहती है ?ये भी कि  अब भी शाम ६ बजते है क्या ? उन दिनों तुमने कुछ भूला तो नहीं था मुझे कहना हो जो ?वक़्त पहर -पहर बीता जा रहा है..
इसके दोनों छोरों पे इक दिन हम नहीं होंगे,कहीं नहीं..निर्मम घड़ी छोटे से क्षण के लिए भी चुप नही करती.जैसे तुम्हारा ख्याल.....यूँ  
अकेलेपन का भी एक स्वाद होता है एक रंग एक खुशबू..नीले अँधेरे में हाथ बढ़ाकर पानी का गिलास उठाती हूँ.कुछ ही बूंदें पानी की बची है.होंठ  कुछ ठन्डे से लगे तुम्हारे बारे में सोचती हूँ तो कोइ भाव नहीं आता मन में.हर रिश्ते की भी अलग बुनावट होती है,तुम्हारे साथ भी कुछ अलग सा है गहरा सा जिसका रेशा-रेशा ऐसा गुथा हुआ कि कोइ  नाम नहीं दिया जा सकता.आँखे बंद कर लेती हूँ.मालूम नहीं अतीत या फिर भविष्य की किन्ही गलियों में बेमकसद भटकती फिरती हूँ,किसी एक घर की सीढियां गिनने की कोशिश करती हूँ..पहले दस फिर सात..आमने-सामने सभी घरों की सूनी छतें.दरवाज़े चेहरों के आकार में ढलने  लगते है.डरकर भागने लगती हूँ...कोइ पुकारता है.कोइ रोकता है.पीछे मुड़कर नहीं देखो,नहीं तो पत्थर हो जाओगी सदियों तक के लिए....तभी कुछ गर्म पिघलता है मेरी रगों में... तुम्हारी आवाज़ सा...तुम्हारी आवाज़...जो सुनते-सुनते अंजुलि में भरे जल सी रीत जाती है.कभी रगों में उतर जाती है...तुम्हारे  चुप होने के बाद भी सुनायी देती है..आँखें थकान से मूंदी जाती है...अक्सर लोरी का कम करती है...तुम्हारी आवाज़...
   बाहर 
टीन की छत पे अब भी बज रहा है बारिश का संगीत या फिर ये भी  तुम्हारी आवाज़..पानी की नन्ही बूँदें सब तरफ  खुशबु-खुशबु कर गयी थी...हथेली से खिड़की के चेहरे पे जमी धुंध पोंछ देती हूँ...देख सकूं अपना अक्स..देख सकूं..आस्मां..आस्मां पे बादल!..कितनी बारिश होगी इसका अंदाजा लगाने का दिल नही करता अब..बल्कि दिन में ही ढूंढ़ती रही हूँ..कि दिख जाये कोई एक तो तारा..कि उसे बांध सकूं काले धागे से...सुना था ऐसा करने से बारिशें रुक जाया करती है.....ऐसा नही कि तुम्हारा इंतजार रहता हो अब...बस इसलिये कि सैलाब से अब ज्यादा डर लगता है...अभी-अभी दरख्त से टूट के एक पत्ता किसी शाखा में जा अटका है..पिछली  दफ़ा तुम यहीं पर तो बैठे थे .मेरे पास..मैं खुद को व्यस्त रखने की कोशिश मे गिलासों के पानी को उलटती पलटती हुई...इक्का दुक्का लोगो के आने की आहट..सूत सी महीन आवाज़ें...आज भी पिछली बार की तरह रेस्तराँ मे नीला अँधेरा है..ज्यादा लोग नहीं है..मैं खुद भी नहीं हूँ यहाँ..शायद!...पर मैं जानती हूँ हल्के उजालो में भी चेहरों को पढ़ा जा सकता है...महीन आवाजो का अनुमान लगाया जा सकता है...कोई झूला जैसे बहुत ऊँचाई से नीचे आता है ना!...बस कुछ उसी तरह का मन है...तुम्हारे साथ जो वक़्त इतनी जल्दी बीत गया..वही आज इतना आहिस्ता क्यूँ है?...या मुझसे ही अब वक्त का हिसाब-किताब नही रखा जाता है ....शायद...गले में जैसे कोई दर्द अटका हुआ है..माथे की नसें कसी जाती है!...इक पल में चेहरा गर्म इक पल में ठंडा हुआ जाता है...हाँ पता है कि मुझे दस साल के बच्चे की तरह पिनक-पिनक के नहीं रोना है!...पर क्यों इतना मन करता है चीख-चीख कर रोने का?...मैं तुम्हे खुश देखना चाहती  हूँ..पर मैं खुश क्यूँ नहीं हूँ?...क्या सुलग-सुलग जाता है मेरे भीतर..उफ़!...शायद मैं पागल होने का उम्मीदवार हूँ...तुम किसी परी कथा से हो..और सुखांत कहानियाँ मिसफिट हैं मेरी जिंदगी मे...जैसे मै मिसफिट हूँ दुनिया मे।
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