रविवार, 27 जून 2010

पढ़ के फेंकी गयी
अखबार की तरह
इधर उधर उड़ती रहती है..

लगातार,बिना थके
घुमते जाते बैलो के गलें में बंधी
छोटी छोटी घंटियो की आवाज़ गुंजाती

पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
या फिर
खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.

दूर जा के
फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी

लय में चलती चक्की पर
थिरकते पिसते गेहूं सी

फासलों की दीवार फांद
उम्मीद की टहनी पे
आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...

*    *     *    *
*    *     *    *

ज़िन्दगी के रंगमंच पर
काली रात का पर्दा गिरता है
उम्र का इक और उजला दिन
किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
उदास सी कर देती है
आँखों के कोनों को
गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...

शुक्रवार, 25 जून 2010

घर का ये  पीछे वाला आखरी कमरा...
जहाँ,
तब भी , रखा रहता था कुछ जरूरी
 
और पड़ा रहता था कुछ गैरजरूरी

पेटियों में अगले मौसम के साफ धुले कपड़े,
तब भी पड़ी रहती थीं ,दीवारों पर पिछली पीढ़ियो की धूल जमीं तस्वीरे.

पीतल और ताम्बे के रिवाज़ बदल चुके बर्तन.

खिड़कियो पे लगे मोटे पर्दों को कभी कभार,
हटा के चुपके से,
किसी सपने को उड़ता देखती..
..बीत चुके दिनों को उधेड़ती..
मुस्कुराती आशाओं से,
आने वाले कल को टांकती पिरोती थी ज़ो..
अब वहां उस कमरे में नहीं है वो..
घर की सबसे बड़ी लड़की ...
रखे होने और पड़े होने मैं बस  एक कल का फासला...
ज़रूरी से गैर जरूरी हो जाने मैं वक्त का एक छोटा विराम.
बस और क्या.

सोमवार, 7 जून 2010

किसी किसी रात के
पिछले पहर
अचानक कई बार
मेरी नींद उचट जाती है.

सोचती हूँ

तुम भी तो नहीं
मुझे ही याद कर रहे हो कहीं
मुझे ये भी डर है
कहीं तुम टहलते टहलते
छत पे चाँद देखने न चले जाओ
मुझे पता है तुम्हारे अंधेरों का
तुमने तो सिर्फ देखे है
और मैंने
मैंने तो महसूस किये है
याद है
पिछली बार
तीज का चाँद देखने छत पे गये थे
आखरी सीढ़ी के बाद भी 
इक और सीढ़ी समझ ली थी तुमने
गिरते गिरते बचे थे


क्या पता तुम मेरे लिए 
 
कोई ख़त ही लिख रहे होगे
चाहे मैं
जानती नहीं हूँ सारे के सारे अर्थ
और कई बार तो यूँ भी होता है
तुम्हे पढने की कोशिश में मैं निरक्षर हो जाती हूँ
फिर भी कोशिश करूंगी तुम्हारा लिखा
गुनगुनाने की

उन जगी रातों की
सुबहों के सिरहानों पे अक्सर
पुराने खतों की महक जैसे
ख्वाब मिलते है मुझे..