पढ़ के फेंकी गयी
अखबार की तरह
इधर उधर उड़ती रहती है..
लगातार,बिना थके
घुमते जाते बैलो के गलें में बंधी
छोटी छोटी घंटियो की आवाज़ गुंजाती
पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
या फिर
खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.
दूर जा के
फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी
लय में चलती चक्की पर
थिरकते पिसते गेहूं सी
फासलों की दीवार फांद
उम्मीद की टहनी पे
आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...
* * * *
* * * *
ज़िन्दगी के रंगमंच पर
काली रात का पर्दा गिरता है
उम्र का इक और उजला दिन
किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
उदास सी कर देती है
आँखों के कोनों को
गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...
अखबार की तरह
इधर उधर उड़ती रहती है..
लगातार,बिना थके
घुमते जाते बैलो के गलें में बंधी
छोटी छोटी घंटियो की आवाज़ गुंजाती
पकते गुड़ की मीठी खुश्बू सी
या फिर
खेतों में खड़े पानी की हुम्स जैसी.
दूर जा के
फिर कहीं गुम हो जाती सडकों जैसी
लय में चलती चक्की पर
थिरकते पिसते गेहूं सी
फासलों की दीवार फांद
उम्मीद की टहनी पे
आ बैठती है तुम्हारी अलसाई हुई सी याद...
* * * *
* * * *
ज़िन्दगी के रंगमंच पर
काली रात का पर्दा गिरता है
उम्र का इक और उजला दिन
किसी नाटक के इक पार्ट जैसा ख़त्म हो जाता है
उदास सी कर देती है
आँखों के कोनों को
गीली सीली सी किसी खास कलाकार की अदायगी...