फूल मूंदकर बंद होने के समय..
गुफ़ा की छ्त से
पिघली बर्फ का यूँ मृदंग बजे..
धूप पीते हो
दरख्तों की चोटियों पे
बैठे हुए परिंदे जैसे..
बादल छाये रहे
जहाँ ऊँचे-ऊँचे शिखरों पे हरदम..
बार - बार लौटे वही
एक बार कही
बात जहाँ..
बिखरी पड़ी हो
हरसू धान की महक..
गुलमोहर का नर्म सहारा लेके
फीके सुनहरी शफक को देखे..
आंखे मीचे-मीचे
सामने से गुजर जाये
सूरज के सभी घोड़े..
पूरे चाँद की सर्द रातें
आस्मां पे उतर आये..
इस से पहले
तेज़ हवाए बहा ले जाये..
तुम साथ साथ पढ़ते रहना
रेत पे लिखूंगी में जो
सिर्फ तुम्हारे लिए..