बिल्कुल सीधे चलना सड़क के मोड़ तलक....
फिर दायें...
...कि जैसे गली जुडती है वहाँ,
वो जगह,
जहाँ गली के दोनों तरफ़ अशोक ...
बुतों से खड़े हैं,
बुतों से खड़े हैं,
वही पे धूल भरा...
...सामने का पहला मकां.
कि अब यही पहचान है उसकी कबसे,
गोया इंतज़ार कर रहा है बीते कई सालों से..
थोड़ा आगे..गोया इंतज़ार कर रहा है बीते कई सालों से..
किसी झरोखे में मद्धम सा दिया...
टिमटिमाता है सवेरे की अलसाई सी रोशनी में...
यूँ कि इक नज़र उनीदीं आँखों की झाँक रहा हो उचक उचक के झरोखें से,
सुबह की पहली चाय से पहले उठा जो...
दिन भर फिर ऊँघता ही रहा...
दिन भर फिर ऊँघता ही रहा...
एक मकान आम अमरूदों के दरख्तों से घिरा...
चहचाहाता है सुबह होते ही,
चहचाहाता रहता है शाम होने तलक...
उसे ये नाज़ है कि
चहचाहाता रहता है शाम होने तलक...
उसे ये नाज़ है कि
ज़िन्दगी बसी है तो बस उसी के घोंसलों में...
...वो एक मकान जो के घोसलों से मिल के बना है.
एक शर्मीला सा मकान अपनी ही बेल बूटों में छिपा.
घबराया सा...
सुबह पहली किरण से जाग जाता है...
घबराया सा...
सुबह पहली किरण से जाग जाता है...
सुनहरी मकान ...
गली की आखिर में...
एक मकान बड़ा उदास सा है..
मन्दिर के बाहरवार..
..लकड़ियों की सीढ़ियों के ऊपर..
जरा झुका सा छज्जा..
गालों पर हाथ टिकाये..
..सोचता रहता हरदम..
...आम के बाग के पीछे...
गिरने को है जो मकान...
..अपने गुज़रे हुए कल लिए एक मकान बड़ा उदास सा है..
मन्दिर के बाहरवार..
..लकड़ियों की सीढ़ियों के ऊपर..
जरा झुका सा छज्जा..
गालों पर हाथ टिकाये..
..सोचता रहता हरदम..
...आम के बाग के पीछे...
गिरने को है जो मकान...
बोने वाले की नीयत या मौसमों की मेहरबानी...
ये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
फिर भी कुछ न कुछ कहते है...
मकान बोले न बोलें, आपकी कविता बहुत कुछ कह गयी।
जवाब देंहटाएंये गली आँखों के सामने उभर आई...घरों के अपने हसीन किस्सों के साथ. कितनी जीवंत कहानियां हैं हर एक घर की...कुछ कहानियां थोड़ी विस्तार से लिखी जाएँ तो और भी अच्छा लगे.
जवाब देंहटाएंदर्पण का कमेन्ट कविता के नए आयाम खोलता है, एक नयी पगडण्डी निकलती है, वहीँ तुम्हारे घरों की गलियों के खत्म होने वाली जगह पर.
बेहद खूबसूरत लिखा है डिम्पल...
बहुत ही अच्छी पोस्ट.....
जवाब देंहटाएंबोने वाले की नीयत या मौसमों की मेहरबानी...
जवाब देंहटाएंउसके आंगन के गुलाब अभी..महकते है...
ये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
फिर भी कुछ न कुछ कहते है...
Behad sundar!
बहुत सुन्दर कविता है... अरसे बाद कुछ दिल को छू लेने वाला लिखा है :) जितनी सुन्दर कविता है उतनी ही संदर दर्पण की टीप भी... सोने पे सुहागा टाइप :)
जवाब देंहटाएंलिखते रहा करो, खुशामद ना करवाया करो :)
ये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
जवाब देंहटाएंफिर भी कुछ न कुछ कहते है...
एहसास .. बहुत खूब
उसके आंगन के गुलाब अभी..महकते है...
जवाब देंहटाएंये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
फिर भी कुछ न कुछ कहते है...
बहुत खूब.
...यूँ कि हर घर कुछ कहता है……………अपने मे एक इतिहास छुपाये होता है।
जवाब देंहटाएंएक शर्मीला सा मकान अपनी ही बेल बूटों में छिपा.
जवाब देंहटाएंघबराया सा...
सुबह पहली किरण से जाग जाता है...
sundar...
***punam***
bas yun...hi...
ये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
जवाब देंहटाएंफिर भी कुछ न कुछ कहते है...
बिना बोले कह जाने वाली बात की अनुभूति से गुजरती कविता की सुन्दर यात्रा!
गुलज़ार साहब ने भी लिखा है .......ऐसे ही किसी मकान की बाबत .........जावेद साहब ने कई मर्तबा याद किया है फर्क सिर्फ फ्लेश्बेक का है ......ग़ालिब ने भी ....मकान वही रहते है बतोर गवाह शिफ्ट नहीं होते ...कुछ न कुछ छूटा रह जाता है सबका !!!!!!
जवाब देंहटाएंBahut badhiya. Bil bole kehna.
जवाब देंहटाएंये मकान कुछ भी तो बोलते नहीं...
जवाब देंहटाएंफिर भी कुछ न कुछ कहते है...
bahut sundar....