हसीन ख्याल,
अजाब-ए-जान बन जाते हैं.
ख्यालों की छाया को वर्कों पे उतारने का मन होता है.
पर एक भी पन्ना खाली नहीं मिलता...
चाँद,
कभी शरमाया हुआ
कभी सोगवार नज़र आता है.
बादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं.
तेज़ हवा,
पत्तों से टकराती हैं तो उदास सी आवाज़ हो आती हैं.
ऐसे में,
खिड़की के बाहर,
शाम की रोशनी के ख़त्म होते ही,
पेड़ों पे बिखरी-लिपटी बेलें मासूम सी नज़र आती हैं.
तुमसे किस मौसम की बात छेड़ दूँ ?
कि बिन मौसम के मौसम की बात भी नहीं की जा सकती.
है न?
परिंदा,
अकेला...
डाल से बिछड़ा,
फिर भी,
कानों में आसमानी मौशिकी घोलता है.
नपी तुली आवाज़ में,
जाने क्या क्या भविष्यवाणी करता है?
ज़ल्दी-ज़ल्दी से चोंच में दाना लिए
कहीं दूर से उड़कर आता है.
घास के तिनकों की नरमी में इश्वर की ख़ुश्बू बसी होती है.
रसोई,
खुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों.
एगज़ोज्ट-फैन,
बरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए.
तुम,
आँखें बंद करके लेटे हुए सुनते रहते हो,
मेरे दिनभर की जमा बातें.
फासलों की ख़ामोशी में मेरी आवाज़ तब तुम तक नहीं पहुँचती,
जब तुम कई बार सो जाते हो...
या नज़र बचा के साथ पड़े लैपटॉप को रिफ्रेश कर लेते हो.
मेरे पूछने पर कहते हो,
"कहाँ? मैंने तो इधर देखा भर बस,
सुन तो तुम्हें ही रहा हूँ."
जाने कैसे बही-खाते है जो सारा दिन लैपटॉप पे झुके पढ़ते रहते हो?
हालाँकि छत पे पहले से ज्यादा धूप रहती है, पर,
धूपों का मौसम अब जा रहा है,
उदासी भरी 'दोपहरें' पाँव पसार रही हैं.
अचानक से कोई 'वावरोला' उठता है और सारी सोचों को दरहम-बरहम कर जाता है.
किसी किताब के पन्ने,
पलटूं भी तो कितने?
पात्र किताबों से निकलते चलते चलते मेरे मन में दुनियाँ बसाने आ पहुंचे हैं.
काल्पनिक पात्र सच और असली बे-यकीनी होकर छलते रहे हैं.
कभी किताब से वो बाहर नहीं निकलते तो, मैं ही,
अपने आप से बाहर निकल,
उनमें खो जाती हूँ.
किसी और की ज़िन्दगी जी लेती हूँ.
खुद को देखती हूँ,
पूरा !
एक साथ !!
अजाब-ए-जान बन जाते हैं.
ख्यालों की छाया को वर्कों पे उतारने का मन होता है.
पर एक भी पन्ना खाली नहीं मिलता...
चाँद,
कभी शरमाया हुआ
कभी सोगवार नज़र आता है.
बादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं.
तेज़ हवा,
पत्तों से टकराती हैं तो उदास सी आवाज़ हो आती हैं.
ऐसे में,
खिड़की के बाहर,
शाम की रोशनी के ख़त्म होते ही,
पेड़ों पे बिखरी-लिपटी बेलें मासूम सी नज़र आती हैं.
तुमसे किस मौसम की बात छेड़ दूँ ?
कि बिन मौसम के मौसम की बात भी नहीं की जा सकती.
है न?
परिंदा,
अकेला...
डाल से बिछड़ा,
फिर भी,
कानों में आसमानी मौशिकी घोलता है.
नपी तुली आवाज़ में,
जाने क्या क्या भविष्यवाणी करता है?
ज़ल्दी-ज़ल्दी से चोंच में दाना लिए
कहीं दूर से उड़कर आता है.
घास के तिनकों की नरमी में इश्वर की ख़ुश्बू बसी होती है.
रसोई,
खुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों.
एगज़ोज्ट-फैन,
बरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए.
तुम,
आँखें बंद करके लेटे हुए सुनते रहते हो,
मेरे दिनभर की जमा बातें.
फासलों की ख़ामोशी में मेरी आवाज़ तब तुम तक नहीं पहुँचती,
जब तुम कई बार सो जाते हो...
या नज़र बचा के साथ पड़े लैपटॉप को रिफ्रेश कर लेते हो.
मेरे पूछने पर कहते हो,
"कहाँ? मैंने तो इधर देखा भर बस,
सुन तो तुम्हें ही रहा हूँ."
जाने कैसे बही-खाते है जो सारा दिन लैपटॉप पे झुके पढ़ते रहते हो?
हालाँकि छत पे पहले से ज्यादा धूप रहती है, पर,
धूपों का मौसम अब जा रहा है,
उदासी भरी 'दोपहरें' पाँव पसार रही हैं.
अचानक से कोई 'वावरोला' उठता है और सारी सोचों को दरहम-बरहम कर जाता है.
किसी किताब के पन्ने,
पलटूं भी तो कितने?
पात्र किताबों से निकलते चलते चलते मेरे मन में दुनियाँ बसाने आ पहुंचे हैं.
काल्पनिक पात्र सच और असली बे-यकीनी होकर छलते रहे हैं.
कभी किताब से वो बाहर नहीं निकलते तो, मैं ही,
अपने आप से बाहर निकल,
उनमें खो जाती हूँ.
किसी और की ज़िन्दगी जी लेती हूँ.
खुद को देखती हूँ,
पूरा !
एक साथ !!
किधर से चुराई गयी है कविता..खुद की लिखी तो नही लगती..मतलब सीरियसली.. :-)
जवाब देंहटाएंगूगल करना पड़ेगा..सोर्स मिल गया तो हमारे गोदाम के लिये भी मटेरियल मिल जाये शायद..
मैं पढता रहा और मुस्कुराता रहा, जैसे इश्क में मुस्कुराता है कोई...
जवाब देंहटाएं@दर्पण: गुड कैम्पेनिंग..सत्यनारायण देव करें कि ऐसा पीआर एड-वाइज’र सबको मिले! :-)
जवाब देंहटाएंबादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं...............
जवाब देंहटाएंjab ye lines suni thi to ek pyari si..ajeeb si kaifiyat hui thi andar...
बादल चाँद को कभी छुपा लेते हैं और कभी बाँहों से निकाल कर देखने लगते हैं...............
जवाब देंहटाएंjab ye lines suni thi to ek pyari si..ajeeb si kaifiyat hui thi andar...
क्या लड़की हो तुम यार.....गज़ब सच्ची ....कैसे आते हैं ऐसे ख्याल ? वैसे भी लफ्जों में कमजोर हैं हम.....कोई शब्द नहीं मिलता
जवाब देंहटाएं"रसोई,
जवाब देंहटाएंखुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों."
बादाम खाया करो.. लोग कहते हैं कि सारे ड्राफ़्ट्स याद रहते हैं जैसे ’दिल चाहता है’ के ’कैलेंडर’ को याद रहे थे।
"एगज़ोज्ट-फैन,
बरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए."
इसे देख अपनी याद आ गयी.. बस अपने हिस्से की जगहें घेरे बैठा रहना.. होकर भी नहीं होना.. :-)
बेहतरीन भाव लिए रचना ...
जवाब देंहटाएं"एगज़ोज्ट-फैन,
जवाब देंहटाएंबरसों से ख़राब है,
मेरे घर में भी खराब ही है इस तरह गुर्राता है बादाम खाया हुआ इंसान भी ड्राफ्ट भूल जाये.मई भी बह गयी बहक गई खो गई इन प्यारी बातों और शिकायतों में
शब्द बुन कर इन्द्रजाल बनाता है एक इन्द्रधनुक कवितायें ऐसे ही बनतीं हैं!
जवाब देंहटाएंसुन्दर, रचना!
बेहतरीन, जहाँ भी नज़र टिकी, कविता बह निकली।
जवाब देंहटाएंawesome is not the word !
जवाब देंहटाएंbohot bohot kamaal ki nazm hai....transported me to somewhere beautiful...amazing
इतना खुशनुमा कैसे लिख लेती हो री लड़की!
जवाब देंहटाएंरसोई,
खुली हवादार जाली की खिड़कियों वाली है.
मेरी पीठ पीछे चाय उबल कर बह चुकी है और चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों.
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कहानियों में ऐसी लड़की मिलती है, सही जिंदगी में पहली बार किसी को देखा है, वो क्या है न तुम ही इतनी प्यारी हो जो इतना प्यारा लिख पाती हो.
हिसाब-किताब जिंदगी का.
जवाब देंहटाएंजहाँ भी नज़र टिकी, कविता बह निकली। धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंaapki soch ki daad deta hun
जवाब देंहटाएंmysterious u r to me....wanna meet u once :)
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी
जवाब देंहटाएंकभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://vangaydinesh.blogspot.com/
http://dineshsgccpl.blogspot.com/
मोबाइल..कोई हाथ नहीं रखता फिर भी कितने काम करता है एक साथ !
जवाब देंहटाएं.रसोई से सीधे दूर किसी कमरे में लेपटोप पर सीधी सेंध लगाता है ..कभी मीटिंगों में भी साइलेंट मोड़ में .....
उदासी भरी दोपहरों भी बाँट लेती है ....इस तरफ किताबे ओर जमा होते ख्याल ...... उस तरफ गोल्ड फ्लेक सिर्फ गोल्ड फ्लेक .
aor haan!
एगज़ोज्ट-फैन ठीक नहीं होते बदले जाते है ....क्यूंकि वारंटी पीरियड के ठीक अगले रोज ख़राब होते है ....पक्के दुकानदारी ठहरे !
जब कभी जिन्दगी से मिलता हूँ..
जवाब देंहटाएं..तो बस इतना ही होता है कि..
तेरी खूबसूरत नज्म जीता हूँ..
इस एहसास के साथ कि..
अगले जन्म तक यह मेरी आत्मा में
.. चस्पां रहेगा....
पानी सी लड़की की पानी सी कहानी.....
"एगज़ोज्ट-फैन,
जवाब देंहटाएंबरसों से ख़राब है,
कभी न उसे ठीक कराने की ज़रूरत पड़ी न बदलने की.
बस अपने हिस्से की जगह घेरे है अपने होने का एहसास लिए."
kuchh hai is line mein..man nahi hat pa raha hai.
nice
जवाब देंहटाएंॐ:
जवाब देंहटाएंइसी के नूर में श्री कृष्ण ने गीता थी कही.
इसी की रोशनी में आयतें उतरीं थीं कभी.
Read Full Poem In Blog..
Blog is waiting your comments
http://paraavaani.blogspot.com/2011/04/blog-post_01.html
बहुत अच्छी लगी यह कविता. दर्पण जी की आवाज़ में मेरी भी आवाज़ मिला लीजिए. वही हिन्दुस्तानी जुबां... काश कि गुलज़ार साहब इसे देख पाते.
जवाब देंहटाएंacchi kavita hai....
जवाब देंहटाएंऔर चाय पीते हुए,
कुछ याद नहीं होगा
...चाय बनाते वक्त क्या सोचा था?
ऐसा कोई विकल्प नहीं है कि ड्राफ्ट सहेजे गए हों
yaad rahegi ye baat... :)
bahut sunder pankhtiyan...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा डिम्पल ...
जवाब देंहटाएंतुम,
आँखें बंद करके लेटे हुए सुनते रहते हो,
मेरे दिनभर की जमा बातें.
सही है...शायद हम सभी ये महसूस करते हैं अपने जीवित पलों में ...बेहद खूबसूरती से पेश किया गया एक चित्रात्मक कविता।
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंतेज़ हवा,
जवाब देंहटाएंपत्तों से टकराती हैं तो उदास सी आवाज़ हो आती हैं.
ऐसे में,
खिड़की के बाहर,
शाम की रोशनी के ख़त्म होते ही,
पेड़ों पे बिखरी-लिपटी बेलें मासूम सी नज़र आती हैं.
तुमसे किस मौसम की बात छेड़ दूँ ?
कि बिन मौसम के मौसम की बात भी नहीं की जा सकती.
है न?
bahut badiya..
धीरे से बहती हुई...शब्द शब्द में कविता!
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