बुधवार, 11 अप्रैल 2012

तुम आना

वणजारे हो ...सपनों की वणज करते हो..ऊँचे दाम भी नहीं फिर भी जाने क्यूँ सपनों को खरीदने की हिम्मत नहीं होती..किससे सीखे इतने मीठे लफ्ज़ बोलते हो जो बेचते हो जब सपने...जानते हो जो लफ्ज़ नहीं बोलते हो इससे भी मीठे है..इस राह से लौटोगे..लौटते वक़्त फिर से दिखा जाना बचे हुए सपने..सफ़र में मुझे याद नहीं करना..मेरी ऑंखें उतनी उदास नहीं जितनी दिखती है..ये नींद से उतनी नहीं भरी जितनी सपनों से भरी है......किसी पत्थर युग में ये बुत तुमने घडा है..तुम्हें पता होगा.हर आने वाले दिन को कलम से काटती रहूंगी...लौट के आना कि शामें अब सिल्ली सांवली सी है...हथेली पर लगी महिन्दी सी महकती नहीं है..आना कि गेहूं की पैलियों में बिखरी सरसों चुनेंगे.आना कि टूनेहारी स्याह रातों में अपने अपने आस्मां के सितारें गिनेंगे..चमकते मैं और फीके तुम गिनना.तुम्हें दिखाउंगी नये मौसम में बनाये है पंछियों ने नये घोंसलें फिर से...तुम आना कि तुम बिन रास्तों पर नजर टिकाये बांवरी पीली दोपहरें मारी-मारी फिरती है..मन उड़ा उड़ा सा रहता है तुम बहुत दूर जो बसते हो..मैं पत्तियां झुकाए उदास पेड़ सी खफा लगूंगी तुम्हें..तुम मनाना मुझे मेरे बचपन वाले नाम को पुकार कर..आधी-आधी रात उठ कर तुझे हाक मारने को जी चाहता है..सोये हुए घूक अँधेरे के सीने में छिप जाऊं ..मेरे होंटों को चूम ले तेरा ज़िक्र..मोती रंग की चांदनी गवाही देगी कि दूज का चाँद मुस्कराता है बिलकुल तुम्हारी तरह..
तुम आना..........