रविवार, 29 जनवरी 2012

लो लिख दिया..

 १ 
सफेद दुपट्टे पर...
जरा-जरा सा..
फालसा किनारा..

...एक लम्बी कविता को ..
...लिखने के बाद ..
काटे हुए ..
..गैरजरूरी..
शब्दों जैसी..

...पलकों में बंद..
...शबनम जितनी..

..मैं..
तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी का..
एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा भर हूँ..
************************************
 सुनो..

गिरी पड़ी..
किताबों को..
..जब सही जगह रखो..
उनसें गिरा कोई..
खत..
मिले तो..
..फिर न पढ़ना..

मेरा नाम..
गर लो...
तो होंठों पर उंगली रखना..

बताओ !
क्या तुम्हें पता है..
सितारे टूट कर..
सच्ची में नहीं गिरा करते..
दुनिया में..
किसी जगह..
सपनें भी नहीं उगा करते..

मैं जानती हूँ..
भले ही देखूं..
आखरी माले से..
आसमां..
दूर नज़र आएगा..

14 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ ऐसी कि वाचाल प्रशंसा की बजाय मौन में 'वाह' कहने का मन करे.
    बहुत अच्छी लगीं.

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  2. हिस्से सारे महत्वपूर्ण होते हैं, किसी न किसी दृष्टि से..

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  3. बेहद गहन भावो का समावेश्।

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  4. Gahrai liye ... Ye sach hai aasmaDoor nazar ayega Par apne hisse ka to nazar ayega ...

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    1. मैं जानती हूँ..
      भले ही देखूं..
      आखरी माले से..
      आसमां..
      दूर नज़र आएगा..
      Wah! Kya baat hai!

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  5. शब्दों के अद्भुत प्रयोग से आपने कमाल की रचना रची है....बधाई स्वीकारें...

    नीरज

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  6. मन के भावो को शब्द दे दिए आपने......

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  7. सुन्दर खूबसूरत शब्दों और अहसासों से सजी एक बार फिर एक बेहतरीन प्रस्तुति. लाजवाब...हर हिस्सा अपनी अपनी जगह है फिर चाहे वो छोटा हो या बड़ा.

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  8. पहली बार पढ़ा आपको.. बहुत खूबसूरत लिखती हैं आप। लगता है बाकी की रचनाएं भी पढ़नी पड़ेगी। बैरंग के रास्ते यहां तक पहुंची। यूं ही लिखती रहें..

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...क्यूंकि कुछ टिप्पणियाँ बस 'टिप्पणियाँ' नहीं होती.