मंगलवार, 25 जनवरी 2011


कागज़ कब सीला हो गया कुछ मालूम नहीं.पेंसिल (जो शार्प नहीं है )लिए हाथ  कब से खर्च किये पलों के बारे में सोच रही  हूँ..कहाँ...आखिर कहाँ !बरसों बाद लिखूंगी तुम्हें ये ख़त हालाकि तब मुझे तुम्हारा पता पता नहीं होगा.तुम जवाब में ये बताना कि क्या सच में हवा में आवाज़े कैद हो जाती है ?हमारे नहीं होने पर भी बहती रहती है ?ये भी कि  अब भी शाम ६ बजते है क्या ? उन दिनों तुमने कुछ भूला तो नहीं था मुझे कहना हो जो ?वक़्त पहर -पहर बीता जा रहा है..
इसके दोनों छोरों पे इक दिन हम नहीं होंगे,कहीं नहीं..निर्मम घड़ी छोटे से क्षण के लिए भी चुप नही करती.जैसे तुम्हारा ख्याल.....यूँ  
अकेलेपन का भी एक स्वाद होता है एक रंग एक खुशबू..नीले अँधेरे में हाथ बढ़ाकर पानी का गिलास उठाती हूँ.कुछ ही बूंदें पानी की बची है.होंठ  कुछ ठन्डे से लगे तुम्हारे बारे में सोचती हूँ तो कोइ भाव नहीं आता मन में.हर रिश्ते की भी अलग बुनावट होती है,तुम्हारे साथ भी कुछ अलग सा है गहरा सा जिसका रेशा-रेशा ऐसा गुथा हुआ कि कोइ  नाम नहीं दिया जा सकता.आँखे बंद कर लेती हूँ.मालूम नहीं अतीत या फिर भविष्य की किन्ही गलियों में बेमकसद भटकती फिरती हूँ,किसी एक घर की सीढियां गिनने की कोशिश करती हूँ..पहले दस फिर सात..आमने-सामने सभी घरों की सूनी छतें.दरवाज़े चेहरों के आकार में ढलने  लगते है.डरकर भागने लगती हूँ...कोइ पुकारता है.कोइ रोकता है.पीछे मुड़कर नहीं देखो,नहीं तो पत्थर हो जाओगी सदियों तक के लिए....तभी कुछ गर्म पिघलता है मेरी रगों में... तुम्हारी आवाज़ सा...तुम्हारी आवाज़...जो सुनते-सुनते अंजुलि में भरे जल सी रीत जाती है.कभी रगों में उतर जाती है...तुम्हारे  चुप होने के बाद भी सुनायी देती है..आँखें थकान से मूंदी जाती है...अक्सर लोरी का कम करती है...तुम्हारी आवाज़...
   बाहर 
टीन की छत पे अब भी बज रहा है बारिश का संगीत या फिर ये भी  तुम्हारी आवाज़..पानी की नन्ही बूँदें सब तरफ  खुशबु-खुशबु कर गयी थी...हथेली से खिड़की के चेहरे पे जमी धुंध पोंछ देती हूँ...देख सकूं अपना अक्स..देख सकूं..आस्मां..आस्मां पे बादल!..कितनी बारिश होगी इसका अंदाजा लगाने का दिल नही करता अब..बल्कि दिन में ही ढूंढ़ती रही हूँ..कि दिख जाये कोई एक तो तारा..कि उसे बांध सकूं काले धागे से...सुना था ऐसा करने से बारिशें रुक जाया करती है.....ऐसा नही कि तुम्हारा इंतजार रहता हो अब...बस इसलिये कि सैलाब से अब ज्यादा डर लगता है...अभी-अभी दरख्त से टूट के एक पत्ता किसी शाखा में जा अटका है..पिछली  दफ़ा तुम यहीं पर तो बैठे थे .मेरे पास..मैं खुद को व्यस्त रखने की कोशिश मे गिलासों के पानी को उलटती पलटती हुई...इक्का दुक्का लोगो के आने की आहट..सूत सी महीन आवाज़ें...आज भी पिछली बार की तरह रेस्तराँ मे नीला अँधेरा है..ज्यादा लोग नहीं है..मैं खुद भी नहीं हूँ यहाँ..शायद!...पर मैं जानती हूँ हल्के उजालो में भी चेहरों को पढ़ा जा सकता है...महीन आवाजो का अनुमान लगाया जा सकता है...कोई झूला जैसे बहुत ऊँचाई से नीचे आता है ना!...बस कुछ उसी तरह का मन है...तुम्हारे साथ जो वक़्त इतनी जल्दी बीत गया..वही आज इतना आहिस्ता क्यूँ है?...या मुझसे ही अब वक्त का हिसाब-किताब नही रखा जाता है ....शायद...गले में जैसे कोई दर्द अटका हुआ है..माथे की नसें कसी जाती है!...इक पल में चेहरा गर्म इक पल में ठंडा हुआ जाता है...हाँ पता है कि मुझे दस साल के बच्चे की तरह पिनक-पिनक के नहीं रोना है!...पर क्यों इतना मन करता है चीख-चीख कर रोने का?...मैं तुम्हे खुश देखना चाहती  हूँ..पर मैं खुश क्यूँ नहीं हूँ?...क्या सुलग-सुलग जाता है मेरे भीतर..उफ़!...शायद मैं पागल होने का उम्मीदवार हूँ...तुम किसी परी कथा से हो..और सुखांत कहानियाँ मिसफिट हैं मेरी जिंदगी मे...जैसे मै मिसफिट हूँ दुनिया मे।
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32 टिप्‍पणियां:

  1. कुछः कविता जैसा ...प्रेम, विरह, दर्द के अहसास छलकाता ...

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  3. खुश रहो कि हमारे साथ अक्सर मिसफिट चीजें रहा करती हैं.

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  4. बिना शीर्षक का था, पर शीर्षक तो विषयवस्तु को सीमित कर देता।

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  5. haan mana hai 10 saal ke bachche ki manind rona ... ho jana hai misfit , bahut hi achhi rachna

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  6. "निर्मम घड़ी छोटे से क्षण के लिए भी चुप नही करती.जैसे तुम्हारा ख्याल.....यूँ अकेलेपन का भी एक स्वाद होता है "

    क्या मह्सूस किया इस से गुज़र कर ये बताने का सामर्थ्य नहीं है शब्दों में…। I was spell-bound. लेखन में सब कुछ कहते हुए भी कुछ अनकहा छोड़ देना एक बड़ी कला है… आपके हर हर्फ़ में एक अनकही टीस सी मह्सूस हुई और यही पाठक को देर तक जोड़ के रखती है खुद से…। बहुत बधाई!

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  7. महसूस कर रहीहूँ और उसी मे डूब उतर रही हूँ ……………कुछ अहसास लफ़्ज़ो से परे होते हैं और दर्द उनका शरीके हयात होता है…………और कुछ कहने के लिये शब्द नही है…………बस वो भीना भीना अह्सास है जिसे शब्द नही दिया जा सकता।

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  8. कोई नहीं इस दुनिया में मिसफिट रहने वाली तुम अकेली नहीं .....हम भी हैं मिसफिट. लेकिन एक कंफ्यूजन है ....".मैं दुनिया में मिसफिट हूँ या दुनिया मुझमे "

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  9. जैसे मै मिसफिट हूँ दुनिया मे।
    -- very touching...
    aapka hamare blog par aana hamare liye blissful hoga, whn hav time...plzz.

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  10. मन की सतह पर रेंगती ....पीड़ा....जो सुस्त-सुस्त बहती है

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  11. पढ़ा तो सोचने लगा कि ये खत किसने किसको लिखा? नायक ने नायिका को या नायिका ने नायक को...? क्योंकि कुछ टिप्पणियाँ बस टिप्पणियाँ ही होती हैं, तो तनिक लिबर्टि लेना चाह रहा हूँ वोडाफोन वाली से :-) कि कोई भटकता न फिरे रेस्तरां-दर-रेस्तरां उसी नीले अंधेरे की तलाश में...कि ये खत बस यूं ही लिखा रखा रहे और प्रेषित न हो...कि टिप्पणियां कभी-कभार बस टिप्पणियां ही रहें।

    बड़े दिनों बाद पढ़ने आया था तुम्हें। अपूर्व की कविता के बाद एक कविता की तलाश में फिरता हुआ, मालूम न था नीले खत से टकरा जाऊंगा।

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  12. दर्पण के फेस बुक के स्टेटस पर जब ये पढ़ा , ये बताना कि क्या सच में हवा में आवाज़े कैद हो जाती है ? तो ऐसा लगा अब इसे नहीं पढूंगा , फिर कोई जानलेवा या फिर चमत्कृत कर देने वाला वाकया गढा होगा ! जब चटाका लगाया तो फिर यहाँ पहुँच गया , सोचता हूँ अब की ये स्टाइल तो दर्पण के लिए संयोजित किया गया था गुलज़ार के बाद ! मगर अब तो कोई और भी अलग सा तेवर दिखा रहा है ! वाकई सराहनीय बेहद उम्दा बधाई !

    अर्श

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  13. यही दुनिया है तो फ़िर ऎसी ये दुनिया क्यों है...

    नीले रंग में लिखी ये डायरी जिसमें तुम्हारी-उसकी खुशबु है.. पंक्तियाँ जैसे कागज के कोनो में जाकर नहीं रहना चाहतीं वो बस बीच में सिमट जाना चाहती हैं.. और इनके बीच में रहने से किनारे जो थोडे अधूरे रह गये हैं उनसे कुछ रिसता है..

    बहुत बढिया और ’फ़िट’ लिखा है दोस्त.. :-)

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  14. हमने सनम को खत लिखा !
    खत मे लिखा ............ !
    अद्भुत !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

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  15. तारों को बाँध लेना इतना आसान नही होता..ना ही बारिशों को थाम कर रख पाना..रेस्तराँ का नीला अँधेरापन न जाने कितनी खाली टेबल-चेयर्स का गवाह होता है..जो कभी गुलज़ार रहती थीं..आवाजें तब भी गूँजती रहती हैं देर तलक..उस गली से जितनी बार गुजरो..उन आवाजों का लम्स महसूस किया जा सकता है..मगर अकेलेपन की यह खुसूसियत है कि हर रिक्त-स्थान के वापस भरे जाने की गुंजाइश भी बाकी रहती है..जिंदगी वक्त के तमाम पिजनहोल्स के संग अपनी ’फ़िटनेस’ खुद ही तलाश लेती है..सो वक्त का हिसाब-किताब रखने से ज्यादा जरूरी जिंदगी का हिसाब रखना है..और जब गले मे कोई दर्द अटका हो तो पिनक-पिनक के भी रो लेना चाहिये! :-)
    पोस्ट अच्छी और हृदयस्पर्शी होने के बावजूद फ़्लो बिखरता सा लगता है बीच बीच मे..और कांटीन्यूटी टूटती सी लगती है..जैसे कई चित्रों को कोलाज मे एक-दूसरे पर चेप दिया हो..अधूरापन बाकी रहता है पोस्ट मे..मगर फिर अधूरापन तो जिंदगी मे भी बाकी रहता है!!

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  16. मेरे दोस्त लोग जानते हैं कि मैं गद्य पढ़ने में कमजोर आदमी हूँ, पर इस पद्यात्मक गद्य को पढ़ना रुचिकर लगा| डिंपल जी बधाई|

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  17. Us dard ko baandhne ki koshish me ho jo tumhe lie beh raha h... Magar aapki lekhni ki koi koshish na naakam thi aur na h... :)

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  18. मिसफिट .. कहीं यह शब्द ही तो मिसफिट नहीं..

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  19. अजीब बात है न अपने जन्मदिन के इतना नजदीक कोई इतना इमोशनल कैसे हो जाता है ....
    ख़त में कई जगह ब्रेक है....लगा जैसे लिखने वाले ने कुछ लिख कर फिर मिटा दिया है....फिर आगे बढा....फिर कुछ लिखा ओर मिटा दिया.......ख़त भेजते वक़्त दो बार रुका..ओर आखिरी में कुछ लेने फिर पेन से काट दी......

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  20. सोंचा, थोडा मौन यहाँ भी रख दूं...

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  21. मैं तुम्हे खुश देखना चाहती हूँ..पर मैं खुश क्यूँ नहीं हूँ?...क्या सुलग-सुलग जाता है मेरे भीतर..उफ़!...शायद मैं पागल होने का उम्मीदवार हूँ...तुम किसी परी कथा से हो..और सुखांत कहानियाँ मिसफिट हैं मेरी जिंदगी मे...जैसे मै मिसफिट हूँ दुनिया मे।

    डिम्पल जी बहुत ही बढ़िया लिखा है ये ख़त एक दम दिल के तारों को झनझनाता सा चला गया. बड़े सुकून से लिखा है आपने. उम्दा.

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  22. इस पत्र को कितना भी एक्सटेंड किया जा सकता था..और एक जिल्द युक्त किताब भी बन जाए, तब भी उसे एक मुश्त पढना आसान ही होगा..
    हालांकि पत्र की समाप्ति धीरे-धीरे उस परीलोक से निकालने में सहायक भी रहती है और यह 'निषेध का निषेध' करने जैसा है और अंत में पाठक उसी मनोस्थिति में लौट आता है , जहाँ से उसने चलना प्रारंभ किया था , पर एक
    तुलनात्मक प्रगति के साथ ..एक ऐसी प्रगति जो सीधी रेखा में नहीं बल्कि पेंच की चूड़ियों की तरह चक्कर खाती हुई और ऊपर उठती हुई होती है

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  23. आह ..आपके यहाँ आवाजें कैद हो जाती हैं ...मेरे यहाँ ये एक ज़जीरे पे इकट्ठी होती रहती हैं जो अंतरिक्ष में हैं कहीं ... एक बेहद दिलचस्प और नयी बात कही आपने ..तारे को काले धागे से बाँधने से बारिश रुकने की बात ....बेहद खूबसूरत

    कोई झूला जैसे बहुत ऊँचाई से नीचे आता है ना!...बस कुछ उसी तरह का मन है..

    शायद मन को इससे ज्यादा अच्छी उपमा दे पाना असंभव है ...

    मन तक उतरती बातें हैं यहाँ ... :)

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  24. दर्द,प्रेम,विरह सब कुछ धुंधला सा बिम्बित होते हुए भी बहुत स्पष्ट नजर आया. न जाने कितनी परतें जो ज्यों ज्यों खुलीं अपनी सी लगीं जाने क्यों? न जाने क्यों?

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  25. soch rahi hoon...aise khat kabhi un nigaahon mein aa pate hain ya nahi....jiske liye likhe gaye hain.

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  26. कौन कहा फीट है और कौन कहा मीस फीट है
    बसंत पंचमी की बहुत बहुत शुभकामनाए

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  27. कोई झूला जैसे बहुत ऊँचाई से नीचे आता है ना!...बस कुछ उसी तरह का मन है...

    बा-कमाल...

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