शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

बस चिराग भर
चाँद को,
बचाए रखा,
हवाओं की बेरुखी से..
 
सपनीले आँगन को,
लीपती ..
 
बोच-बोच कदम रखती..
 
धूल सने आस्मां को,
धो डालती
नीम आँखों की नदी से..
 
नयी सुबह के सपने गांठत़ी
अंधेरी,उजली सभी रातों में..
 
सच और सपनो के,
बीच की दुनिया में..
जाने कौन सा छोर ,
छूटा मुझसे..
 
अब हर चीज़ पते ठिकाने पर है,
और मेरे हाथ खाली है बस..

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

बहती धारा के किनारों से..
सरकती जा रही थी,
दरख्तों की कतारें
धीरे -धीरे..

पनीले कुहासे में ,
डूबा चाँद,
जब-तब..
आँखों में झूलते पानी में
कैद हो जाता था..

पढ़ी-सुनी दुनिया से..
कितनी जुदा..
..कितनी सुंदर..
लगा करती थी
बारिश भीगी खिड़की के पार की दुनिया..

कोई ख्वाहिश नहीं थी..
कोहक़ाफ़ की घाटियों के हीरे-पन्नो की..
खुलने लगे थे अपने आप
चमकते ख्वाबो के दरवाज़े..
..सिम-सिम करके..

जादू के कालीन पे..
बादलों में उड़ना ..
कितना भला सा था...

ये बात और है कि...
मुझे नीचे उतरने की कला मालूम न थी...

बुधवार, 1 दिसंबर 2010


कई बार सोचती हूँ..
कि तुम्हें आज न सोचूं...
और कुछ और
सोचूं..
..मैं..

सच..
कुछ और सोचा भी..
न जाने फिर भी...
..तुम..

जाड़ों की रात की सर्द हवा सी
तुम्हारी आवाज़...
भूल जाती हूँ सुनते-सुनते
कि क्या कह रहे हो..
अगर टोक के बीच में से पूछ लो कभी तो...
नहीं बता पाऊँगी...
कहाँ थे
..तुम..

तुम्हारी हंसी की सीढियां..
उतरती चढ़ती रहती हूँ..
..मैं..

जाओ अब ..
जाते हुए कहते हो जब..
मन चाहता है कि ठहर जाओ
और बस एक क्षण
..तुम..